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यात्रावृत्त

अंडे से अंडमान

श्रीप्रकाश शुक्ल


अंडमान आदिम है। आदि मानव की यात्रा यहीं से शुरू होती है। अंतिम मानव भी यहीं पर बचता है। जब कुछ नहीं होगा तो यही बचेगा। यहीं उस आदिम कछुवा का निवास है जिसकी पीठ पर मंदराचल पर्वत को रखकर समुद्र को मथा गया। जिस कछुए को हम आज इसके संग्रहालय में होर्नबिल टर्टल के नाम से जानते हैं वह इसी कछुवा का वंशज है। समुद्र में लगातार उठने वाली लहरें इसी कछुवा की आती जाती साँसें है। जब यह नहीं होगा समुद्र में लहरें नहीं होंगी। तब यह धरती भी नहीं होगी। फिर एक नया सृजन होगा। कछुवा तब भी जीवित रहेगा। हम दुआ करते हैं कछुवा जिंदा रहे। वह आधुनिक डाकुओं के कोप से बचा रहे!

और यह सब कोई गप्प नहीं है भाई। 'भागवत पुराण' के द्वादश स्कंद के तेरहवें अध्याय के दूसरे श्लोक में इसका संकेत है। लेकिन इसका साकार बोध मुझे अब हुआ। जाहिर बात है मैं जब अंडमान हुआ। यूँ अंडमान होना कछुआ होना है और समुद्र को धीरे धीरे सहलाना है...

     पृष्ठे भ्राम्यदमन्दमंदरगिरिग्रावाग्रकन्दूयना
          निद्रालो कमठाकृतेभगवतः श्वासानिला पान्तु वः
          यत्संस्कारकलानुवर्तनवशाद वेलानिभेनाम्भसां
          यातायात मतन्द्रितमं जलनिधेनाद्यापि विश्राम्यति।

(जिस समय भगवान ने कच्छप रूप धारण किया और उनकी पीठ पर बड़ा भारी मंदराचल मथानी की तरह घूम रहा था, उस समय मंदराचल की चट्टानों की नोक से खुजलाने के कारण भगवान को तनिक सुख मिला। वे अचानक सो गए और नीद में श्वासों की गति थोड़ी बढ़ गई। वे खर्राटा लेने लगे। उस समय उनकी श्वास वायु से समुद्र को तेज धक्का लगा और उसमें लहरें उठने लगीं जो आज तक जारी है। यह लहर वाला संस्कार अभी तक नहीं गया है जिसके कारण से ज्वार भाटे दिखाई देते हैं। भगवान तब से लेकर आज तक विश्राम नहीं पा सके हैं। सूत जी कहते हैं हे शौनक भगवान की वही परम प्रभावशाली श्वास वायु आप सब की रक्षा करे।)

यात्रा में घर !

तो हे पाठकों, मैं भी दुआ करता हूँ कि भगवान की वही परम प्रभावशाली श्वास वायु आप सब की रक्षा करे।

      जब घर पर होते हैं
          घर से बाहर निकलने का मन करता है
          जब घर से बाहर निकलते हैं
          घर लौटने को मचल उठते हैं
          घर के भीतर ही हमारी दुनिया है
          और हम समझते हैं हम घर से दूर है
          और बहुत बाहर भी
          दूरी असल में कुछ नहीं होती
          सिवाय इसके कि हम घर के बाहर से घर के भीतर झाँकते हैं
          और बेचैन हो उठते हैं।

'काला पानी' की यह उजली यात्रा जैसे जैसे नजदीक आ रही थी हमारी भी यही स्थिति थी। कितना भी कोशिश करता, घर से दूर जाने की घबराहट से मुक्त नहीं हो पा रहा था जबकि इस बार की पूरी यात्रा में अपना घर, वही परिवार वाला घर, पूरी तरह साथ था। तो घर एक परिवार से बड़ा होता है यह समझ जैसे जैसे आ रही थी काला पानी की यात्रा को लेकर भावुक हो रहा था।

कैसे छूटा होगा हमारे पुरखों का घर, जब उनके साथ परिवार भी नहीं था या कि कैसे विदा किया होगा परिवार ने यह जानते हुए कि घर अब इनके नसीब में नहीं है। काला पानी इस घर से हजारों मील दूर है और जो वहाँ जाता है लौटकर नहीं आता। वहाँ पिउ को संदेश भेजने वाले भौरे व काग भी नहीं जा सकते और वहाँ से कोई लौटकर आ भी नहीं सकता क्योंकि खारे पानी में रहने वाली साम्राज्यवादी सुरसा उन्हें लौटने नहीं देगी। कहीं पढ़ी हुई यह घटना भी याद आ रही थी कि वीर सावरकर को कई महीने रहने के बाद ही पता चला था कि उनके बड़े भाई भी काला पानी में ही हैं।

तो क्या काला पानी विभाजित करता है। नहीं आज का तो जोड़ता है। अपने पुरखों की स्मृति से। हम इसी जोड़ की तलाश में जा रहे थे यद्यपि पुराने दिनों को सोचकर बहुत कुछ हमारे भीतर टूट भी रहा था। बस कुछ टूटे न टूटे एक कायर तो टूटे। 'काला पानी' हमारे भीतर के इसी कायर को टूटने की अनोखी दास्तान है जो अपने भीतर एक जगता इतिहास छुपाए है जिसे हमारी व्यवस्था के काइयाँपन ने ओझल कर रखा है। संभव है भारत सरकार ने इसी के निमित्त काला पानी में पर्यटन को बढ़ावा दिया हो लेकिन पर्यटन भी कहाँ उस जज्बे को समझ सकता है जो यहाँ के 572 टापुओं में कैद है।

'काला पानी' कहीं न कहीं 'खारा पानी' की ध्वन्यात्मक उपस्थिति है। हमारे पुरखे गए थे लेकिन उन्हें जीने नहीं दिया गया। हम जा रहे थे क्योंकि हम जानना चाह रहे थे। यूँ जीने व जानने में एक द्वंद्व है और यह द्वंद्व ही मानव सभ्यता की प्रसार शक्ति का मापक है।

      काला पानी काला पानी
          बोल करियवा कैसा पानी
          बाबा बोलें मन भर पानी
          देख फिरंगिया उजला पानी!

जब से 'कालापानी' की यात्रा का मन बनाया और यह यात्रा जैसे जैसे नजदीक आती गई मुझे जाने क्यों ग़ालिब के समकालीन अदीब शेख इब्राहीम 'जौक' के गजल की ये पंक्तियाँ बार बार याद आ रही थी -

      लाई हयात आए कजा ले चली चले
          अपनी खुशी न आए न अपनी खुशी चले।

और यह अकारण नहीं है कि काला पानी का सड़ा इतिहास भी जौक के जमाने से ही आरंभ होता है यद्यपि 1857 के थोड़े दिन पहले ही 1854 में सत्रह दिन की बीमारी के बाद जौक का निधन हो गया और उनकी अधिकांश रचनाएँ गदर में नष्ट हो गईं। यह भी याद करना दिलचस्प है कि जौक को अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर अपना उस्ताद मानते थे और 1857 की गदर के बाद अपनी धरती से बहुत दूर वर्मा के रंगून में नजरबंद कर दिया गया जहाँ 1862 में उन्होंने अंतिम साँस ली। इस समय जब मेरा जहाज आज यानि अक्टूबर 2015 की इक्कीसवीं तारीख को कोलकाता से पोर्ट ब्लेयर के लिए उड़ान भर रहा था तब जफर की ये पंक्तियाँ भी बहुत याद आ रही थीं, गो कि यह तो 'दंडी बस्ती' पहुँचने के बाद ही पता चला कि अंडमान में वर्मा के रंगून से लाए गए कैदियों की संख्या कोई कम न थी।

      मैंने दिल दिया मैंने जान दी मगर आह तूने कदर न की
          किसी बात को जो कभी कहा उसे चुटकियों में उड़ा दिया।

          कितना है बदनसीब जफर दफन के लिए
          दो गज जमीं भी न मिली कुए यार में।

कालापानी का उजला सच!

तो अंडमान की इस यात्रा में 1857 तो स्मृति में था ही, जहाँ से ये पंक्तियाँ याद आ रही थी, साथ में 'काला पानी' का उजला सच जानने के लिए साहित्य की जो कुछ जानकारी कर रखी थी वह भी साथ थी। 'काला पानी' का नाम मैं बचपन से ही सुनता रहा था जिसमें यह बात बार बार बताई जाती थी कि जो वहाँ गया कभी लौट के नहीं आया। ठीक बंगाल के उस जादुई भय की तरह कि बंगाल में जाने के बाद कोई लौटता नहीं। वह पशु, पक्षी, कुत्ता, बिल्ली, जानवर कुछ भी हो सकता है लेकिन आदमी नहीं। इसमें काला पानी के भयावह सच के रूप में क्रांतिकारियों के किस्से तो मैंने सुने ही थे यह भी कि इसके महानायक तो वीर सावरकर ही थे जो लंदन से पकड़ के ले आते समय फ्रांसीसी तट के निकट समुद्र में कूद गए थे जिन्हें बाद में पकड़ लिया गया और फिर पचास वर्ष की कालापानी की कठोर सजा सुनाई गई। साथ में यह भी हमें बताया गया था कि जहाँ इन्हें बार बार नायक बना कर पेश किया जाता रहा है वहीं इस तथ्य को छुपा लिया जाता है कि सबसे अधिक अँग्रेजों से समझौता इन्होंने ही किया और समर्पण व सुधार के जिस सिद्धांत पर पूरा औपनिवेशिक दर्शन गढ़ा गया, उसके सूत्रधार ये ही रहे। यह बात और है कि काला पानी का उजला सच जानने की तैयारी में जब इनके उपन्यास 'काला पानी 'से गुजरा तब मुझे इनके हाहाकारी जीवन की जो झलकियाँ मिलीं उससे इनके प्रति सम्मान से माथा झुक गया, यह जानते हुए भी कि 1925 के बाद यही सावरकर हिंदुत्व व संघ के विकास में मुख्य भूमिका में रहे। जिस हालत में ये लंदन में पकड़े गए और जिस तरह से 50 वर्ष की सजा के दायरे में इन्हें काला पानी भेजा गया, उसमें कोई भी विचलित हो सकता था जब उसे पता चला कि उनके बड़े भाई भी उसी काला पानी में कैद है और जो अभी भी यही जानते हैं कि छोटा भाई लंदन में वकालत पढ़ रहा है जिससे वह शीघ्र ही भारत माता को आजाद करावेगा।

लेकिन यह सब मैं भी कहाँ का इतिहास लेकर बैठ गया जबकि मुझे तो अपने समय के काला पानी जाना था जो समुद्र से घिरा एक सुंदर टापू है जहाँ के तट बहुत सुंदर व साफ हैं और जहाँ के बारे में कहा जाता है कि गोवा से भी यह सुंदर है और अगर थोड़ा और कहें तो कोंकण का एक प्रतिरूप ही है, अपनी नैसर्गिक आभा व ऊष्मा के कारण। यूँ तो इस काला पानी की यात्रा की तैयारी मैंने जून में ही कर ली थी लेकिन जैसे जैसे 20 अक्टूबर का समय नजदीक आ रहा था, पत्नी व बच्चों में यात्रा की तैयारी हेतु कपड़ा इत्यादि की अपेक्षित हलचल बढ़ने लगी थी जबकि मैं इस जगह से जुड़ी पुस्तकों को खरीदने या पढ़ने में व्यस्त था। जाहिर सी बात है, इस यात्रा में अंतर्यात्रा तो भौतिक रूप से संपन्न हुई ही, साथ ही सूचना के स्तर पर वे सभी लेखक व पुस्तकें भी मेरे सहचर रहे जिन्हें अपने स्मृति में साथ ले गया था और जिनके प्रति इस संस्मरण के समापन में आभार भी व्यक्त किया है। यहाँ यह बताना अनावश्यक न होगा की जिस अक्टूबर में चर्चित कन्नड़ लेखक कलबुर्गी के हत्या के विरोध में देश भर के लेखक एक एक कर अपना पुरस्कार वापस कर रहे थे और सत्ता के गलियारे में पहली बार लेखकों के इस विरोध को पूरी गंभीरता से लिया जा रहा था, मैं 'कालापानी', का इतिहास समझने में व्यस्त था जिसके बनने में एक निरंकुश अँग्रेजी साम्राज्य ने अपनी भूमिका अदा की। इसके साथ ही स्वाधीनता संग्राम तो मेरे साथ था ही जिसके माध्यम से सेलुलर जेल में बंद कैदियों के तेल पेरने, नारियल के रेशे से रस्सी बनाने, हथौड़ा चलाने और पीठ पर मर्मान्तक कोड़ों के पड़ने की आवाज आ रही थी। बाहर से शांत मेरा मन भीतर से बहुत विचलित हो रहा था और सत्ता की क्रूरता व नेताओं की बयानों से मेरा मन बहुत आक्रोशित हो रहा था। इसी समय समय के संत्रास के भीतर सेल्फी की उबाऊ चमक पर लेख लिख रहा था जिसकी परिणति सतत असहिष्णु समाज की निर्मिति में होते देख रहा था तो दूसरी तरफ लेखन व अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़े मुद्दों पर अपना सार्थक विरोध भी दर्ज कर रहा था। इन सभी वर्तमानकालिक घटनाओं की क्रूर अभिव्यक्तियों में बार बार अपने शहीदों के प्रति मेरा मन कृतज्ञता से भर उठता था और यह भी कि पीठ पर बजते कोड़ों का यह मतलब तो नहीं ही रहा होगा कि आज हम अपने उसूलों में बजबजाते रहें और प्रगति की दिशा में अग्रसर एक सतत जागरूक समाज को प्रतिगामी दिशा में मोड़ दें। समाज व संस्कृति में आज जो मार काट, असहिष्णुता फैली है आखिर उसका हिसाब हम अपने पुरखों को किस रूप में देंगे या कि जब वे अपनी जलाए गए या कि दागे गए जिस्म को दिखाते हुए हमसे कुछ पूछेंगे तो हमारे पास क्या जवाब होगा। यही कि - ऐ पुरखों जल में जलावतन की तुम्हारी जमीं को हम शीश नवा आए या कुछ और! ग़ालिब जिन्होंने स्वयं आजादी का वह विद्रोह देखा था और जिन पर बहादुर शाह के काव्य गुरु (जौक की 1854 में मृत्यु के बाद) होने के कारण बागी होने का आरोप लगा था मानो पूछ रहे हैं क्रांतिकारियों की और से -

      तेरी वफा से क्या हो लताफी की दहर में
          तेरी सिवा भी हमपे बहुत से सितम हुए।
या कि
         हमको उनसे है वफा की उम्मीद
         जो नहीं जानते कि वफा क्या है।

तो सबसे पहले अपने पुरखों से सब प्रकार की क्षमा याचना और यह भी कि आप ने हमारे लिए जो कुछ भी किया उसके लिए हम बहुत कृतज्ञ हैं और इसलिए भी कि यह सब आपने साम्राज्यवादी समर्पण के खुले विकल्प के बावजूद किया। हमारे वजूद में आपके जिस्म का रेशा रेशा गुँथा हुआ है जिससे हमारे जीवन की हर आकृति बनाई जाती है।

तो इन्हीं सब स्थितिओं के साथ 21 अक्टूबर को मैं कोलकाता के नेताजी जी सुभाष चंद्र बोस हवाई अड्डे से उड़ान भरा तो कोई दो घंटे बाद पोर्ट ब्लेयर आ गया। इसे वीर सावरकर हवाई अड्डा कहते हैं। तो सुभाष से सावरकर का इस तरह मिलन हुआ और उतरने पर पता चला कि 2002-03 के बीच वाजपेयी जी के प्रधानमंत्री होने पर पोर्ट ब्लेयर हवाई अड्डे का नाम सावरकर के नाम पर पड़ा। चलिए पुरखे किसी काम तो आए। लेकिन इनका अपना मिलन भी इतिहास की एक सचाई है। जब मैं एअरपोर्ट के बाहर निकल रहा था तो 1939 में सुभाष के साथ की सावरकर से हुई मुलाकात की याद आ रही थी जब सुभाष सावरकर से मिले थे और तब तक यह स्पष्ट हो चुका था कि सावरकर कांग्रेस की नीतिओं से संतुष्ट नहीं थे और सुभाष को सलाह दी कि वे जर्मनी जाकर वहाँ के हिंदुस्तानी सिपाहियों के साथ एक फौज का निर्माण करें। यहाँ यह याद रखना होगा कि लंदन में रहते हुए सावरकर को जर्मनी के चांसलर कैसर से हिंदुस्तान की आजादी का आश्वासन मिला था जब कैसर ने खुलकर कहा था कि विश्व शांति के लिए हिंदुस्तान की आजादी अत्यंत आवश्यक है। सुभाष ने यह किया भी, जब वे काबुल के रास्ते जर्मनी चले गए। कह सकते हैं कि पश्चिम के सावरकर और पूर्व के सुभाष के मिलन से उत्पन्न हुई क्रांतिकारिता ने आजादी की मजबूत पृष्ठभूमि निर्मित की जिससे 'काला पानी' बसने लायक हुआ और मुल्क ने आजादी का स्वाद चखा। अब इस पर विवाद है कि सावरकर बनाम गांधी में सावरकर के हिंदुत्व ने देश को कितना नुकसान पहुँचाया और सुभाष की अधीर क्रांतिकारिता ने किस तरह से उन्हें हिटलर के नजदीक पहुँचा दिया लेकिन वह यहाँ हमारी चर्चा का विषय नहीं है। वह बुद्धिजीविता का विषय है जबकि मैं इस समय काला पानी के स्पंदित हृदय को सुनना चाहता हूँ जिसमें जाहिर सी बात है केवल सावरकर ही शामिल नहीं थे बल्कि कई ऐसे क्रांतिकारी भी शामिल थे जो भूख हड़ताल करते, काम करते, नारियल की रस्सी बनाते, पशुवत तेल पेरते हुए जीवन गवाँ दिए लेकिन किसी प्रकार की दया की भीख नहीं माँगी। इन सभी के सामने विकल्प मौजूद था और अँग्रेज यही चाहते थे कि ये सब अँग्रेजों का विरोध छोड़कर उनके समर्थक बन जाएँ जिससे उन्हें उनके वतन वापस भेज दिया जाए, लेकिन मुख्य भूमि पर वापस आने की बात ही छोड़िए, उन लोगों ने अँग्रेजों की शर्तों पर उस वीरान टापू पर भी रहने को नकार दिया और उसकी तुलना में स्वर्ग का मार्ग अपनाया। आज पोर्ट ब्लेयर में जहाँ से भी गुजरा उनकी चीखें कम, वंदे मातरम की गूँजें ज्यादे सुनाई दे रही थीं! और ये गूँजें आत्मा की अटल गहराई से आ रही थीं, न कि देश भक्ति को सिद्ध करने की किसी बाहरी विवशता के कारण जिसमें चारों तरफ सुरमई, कोकर, मिर्गल, कुकड़ी, माया मछली से पटे पोर्ट ब्लेयर में मछलियों की ताजी ताजी बुझी हुई आँखों में पुरखों के कुर्बानी की नमक भरी कहानियाँ दिखाई दे रही थीं और जब कोई बेचने वाली औरत मछली की आँखें फाड़कर हमें यह दिखाती थी कि देखिए यह कितनी ताजी है तो मेरा मन इन मछलियों में अपने कराहते पुरखों की आह सुनता था। इन सभी की आँखों में शांत समुद्र का जो हाहाकार दिखाई देता था उसमें हमें अशांत पुरखों के आँखों में उमड़ता हुआ समुद्र दिख रहा था। यहाँ उस महाराजा जहाज का अट्टहास भी सुनाई दे रहा था जो धुआँ फेंकता निर्वासित कैदियों को इस टापू पर छोड़ जाता और फिर अपने उपहास के साथ यहाँ से विसर्जित हो जाता। कुछ और चीखों की व्यवस्था के लिए...

     यातना एक जिद है
         जो यातना में होता है वह बहुत जिद्दी होता है
         जैसे कि हमारे पुरखे
         जिनकी जिद ही उन असंख्य घावों के लिए मरहम थी
         जो तब मिले थे जब वे
         काला पानी की काल कोठरी से अपनी माटी को पुकार रहे थे

खैर, हवाई जहाज के उतरते समय के ठीक पहले का दृश्य बहुत रोमांचक था। लोग थे कि खिड़की से आधी अधूरी तस्वीरों को उतारने में व्यस्त थे जबकि मैं अभी भी अंडमान व काला पानी के नामकरण पर अटका हुआ था। तस्वीरों में इसका सुंदर भूगोल दिख रहा था लेकिन इतिहास की बेचैनी ने मुझे परेशान कर रखा था। यहाँ की मूल जातियाँ, आदिवासी परिवार, उनकी भाषाएँ ये सब तो अब दस्तावेज में दर्ज हैं लेकिन उन चीखों में अभी भी बहुत कुछ बाकी था जो अनलिखा है लेकिन जिसे लिखते समय काफी संयम से काम लेना पड रहा है क्योंकि 1858 के बाद विकसित होते अंडमान ने अपनी कहानी में बहुत कुछ ऐसा जोड़ रखा है जिसे महज भावुकता से नहीं पकड़ा जा सकता।

तो यहाँ से इसके समझने की कथा, इसके बनने व बसने की कथा है जिसमें इसके आकार प्रकार के साथ ही समुद्र के थपेड़ों के बीच लगातार मुतमईन होते अंडमान की कथा भी है। यह बात और है कि हजारों वर्ष पूर्व से परिचित इस महादेश की असली कथा पहले आजादी के संघर्ष से शुरू होती है जिसमें यह टापू सचमुच में आबाद होता गया, यद्यपि लक्ष्य भारत को बर्बाद करने का था। यह बात अलग है कि तब आवागमन के साधन इतने सुलभ नहीं थे जो आज हैं, अपनी सभी तकनीकी सुविधाओं के साथ!

तो जब मैं आकाश की ऊँचाई से धीरे धीरे नीचे उतर रहा था तो अंडमान मुझे 2013 की पिछली बाढ़ में घिरे मेरे घर जैसा दिख रहा था। ऐसा लग रहा था कि मैं अपने ही घर का हवाई सर्वेक्षण कर रहा हूँ और यह समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि कितना नुकसान हुआ है जिसे देखकर मेरे मित्र दुखी होंगे। (कोई सुखी हुआ हो तो मेरी बला से!)। सब ओर जल ही जल। चारों और पछाड़ खाता समुद्र। समूचा समुद्र मानों अपने गरज से पूरी एक बस्ती को निगलने को आतुर। बहुत सारी बातें मन में दर्ज हो रही थी। कैसे टिका होगा! आखिर कहाँ पर टिका है यह अपने आदिवासी बस्तिओं में! रोज ब रोज पानी के थपेड़ों को सहती हुई यह बस्ती अब तक टिकी कैसे है। जड़ें सुरक्षित कैसे हैं। हमारा घर तो सात दिन के पानी में ही कमजोर हो गया। जमीन बैठ गई। यहाँ तो हजारों साल से यह ऐसे ही डूबा है और फिर भी हवाई जहाज के लोड को बर्दाश्त कर रहा है! हम धीरे धीरे आकाश मार्ग से धरती की तरफ बढ़ रहे थे और धरती थी कि हमारी नजरों में बड़ी होती जा रही थी। बड़ी होती धरती को देखकर हमारा कौतूहल बढ़ रहा था और हम उसे चूमने भर की दूरी पर बने थे कि मेरी बेटी दर्शिता ने धीरे से पूछा - यह अंडमान का रहस्य क्या है। कुछ जानते हैं। बेटा आगत तो हवाई जहाज से फोटो लेने में ही व्यस्त था लेकिन बेटी के मन में अंडमान का वही रहस्य कौंध रहा था जिसको लेकर मैं पिछले दो घंटे से शांत था व सोच रहा था। बेटियाँ ज्यादे संवेदनशील होती है और काव्यात्मक भी। यह अंडमान की इस धरती पर भी जाहिर हो रहा था और इसी जाहिर होने की अवस्था में मैंने उसे एक कथा सुनाई ताकि मैं भी थोड़ा सामान्य हो सकूँ अन्यथा श्रीमती जी के कोप का भागी होना पड़ेगा - लेखकों के साथ घूमना टहलना भी कुछ असाधारण अनुभव जैसा होता है! लगभग एक उबाऊ असाधारणता !

खैर आप भी वह कथा सुनिए...

...लेकिन इस कथा के ठीक पहले कथा की गति रोककर एक बात बताता हूँ जिसे अंडमान से लौटते समय नाखूनों के पोर में फँसी बालू की तरह लाया था ...कहा जाता है कि यह हरा भरा अंडमान 15 करोड़ साल पहले लावा के फूटने से बना है जिसे 'व्हेल बैक ट्यूमर' कहा जाता है। इस लावा का स्रोत समुद्री सतह से भी नीचे था जिस कारण से यह क्षेत्र बहुत सुरक्षित है। अब जब कभी समुद्री उथल पुथल के फलस्वरूप प्रलय आएगी, जो कि आएगी ही, यह क्षेत्र ही अंततः बचेगा। और तब नई सभ्यता के विकास में इस क्षेत्र का ही योगदान होगा (लेकिन जमीन खरीदने बेचने वाले मेरे काशीवासी मित्र यहाँ बसने की जल्दबाजी न दिखाए!) यहाँ फिर आदिवासी होंगे जिन्हें फिर कृतज्ञता बस आदिवासी कहा जाएगा और जो फिर सभ्यता में हाशिए पर ही रहेंगे। यह भी संभव है कि पोर्ट ब्लेयर से 120 किलोमीटर उतर पूर्व में जो जिंदा वोल्कानो है, live volcano, वह ही जम जाय और वहीं पर नई सभ्यता का जन्म हो। यहाँ इसके लिए एक विचित्र किस्म की बकरियाँ मिलती हैं जो समुद्री पानी पर निर्भर रहती हैं और हम जानते हैं कि हर नई सभ्यता के विकास में इन बकरियों की एक विशेष भूमिका होती है जिन्हें चराता हुआ कोई गड़ेरिया सुदूर तक जाता है और सभ्यता के अवशेष खोज लाता है। अब चूँकि ये बकरियाँ प्रभुओं के टूटे हुए जहाज से यहाँ तक पहुँची थी तो यह भी संभव है कि इनको चराने वाला पिछली सभ्यता के किसी टूटे हुए जहाज में बैठकर यहाँ तक पहुँच ही जाय और फिर अपनी मादक उपस्थिति से अपना कोई विकल्प तलाश ही ले यह गाता हुआ ...ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे मालिक धीरे धीरे...! जिन्हें सभ्यता को बचाने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी का अहसास हो वे इस कथा पर गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे और जो सहज जीवन जीते हुए इसी जन्म की चिंता में रहते है, परलोक से कोई मतलब नहीं रखते, वे हमारी आगे की कथा के साथ चलें!

...तो सुनिए अब कथा और यह मत पूछिए कि उतरते हवाई जहाज में इतनी जल्दी आपने कथा भी कैसे सुना डाली! अरे भाई ए.टी.सी. से सिग्नल नहीं था और हवाई जहाज हवा में चक्कर काट रहा था। गोल गोल। शत घुर्णावर्त। बिल्कुल अंडे जैसा, जैसी की खुद पृथ्वी है। पूरा अंडमान हरा हरा ऊपर से गोल गोल अंडाकार दिख रहा था जिसमें कई टूटे अंडे के अर्धवृत्ताकार आकृति का आभास करा रहे थे! ऐसा लगता था कि किसी ने बहुत दूर से लाकर इसी समुद्र में अंडों को छोड़ दिया है जिसमें कुछ साबुत बच गए और कुछ टूट फूट कर लहरों की हलचलों में इधर उधर बिखर गए! सब जगह अंडा ही अंडा था और इसके भीतर से बाहर निकलने को आतुर अंडमान जिसके प्रजनन की मानसिक क्रिया में मेरे मनोभावों का निर्माण हो रहा था और मैं ऊपर से हरी हरी दिखती वादियों में एक विलक्षण जीवन की हलचलों के अहसास से पुलकित हो रहा था, अंडमान सामने था लेकिन धुँधला! इसलिए अंडे की आकृति मेरे मन पर छाई हुई थी। छाए भी क्यों न! अंडे में अंडमान का रहस्य भी जो है!

कहीं पढ़ा था कि अंडमान निकोबार द्वीप समूह में यूँ तो कुल 572 द्वीप हैं लेकिन आबादी केवल 38 पर ही है। इसका नाम अंडमान इसके अंडे के आकार के कारण पड़ा, यह बात वीर सावरकर ने अपनी औपन्यासिक पुस्तक 'काला पानी' में दर्ज की है। हुआ यह की बहुत पहले अरब में अल्लाह का एक बंदा था जिसको खुश देखने हेतु अल्लाह ने कहा कि तुम पूरब की तरफ जाओ और जहाँ सूरज उगता हुआ दिखे वहाँ एक सुंदर बस्ती बसाओ। वह बंदा अल्लाह की हुक्म की तामील के लिए पूरब की ओर चल दिया और चलते चलते कई दिन बाद जब सूरज निकलता हुआ दिखा तो वह प्रसन्न हो गया। थोड़ा आराम करने के बाद वह अल्लाह की मर्जी के बारे में सोच ही रहा था और धरती के ऊपर समुद्र की छटा को देखकर अभिभूत हो ही रहा था कि अचानक भयानक तूफान आ गया। फिर जब उसकी नाव डूबने लगी तो उसने एक हाथ में कुरान व दूसरे हाथ में जान बचाने के लिए अंडा ले लिया। जब पानी उसकी नाक में घुसने लगा तब उसने जोर लगाकर अंडे को फेंका। वहीं अंडा अंडमान की बस्ती के रूप में उभर आया और वह अल्लाह को लाख लाख शुक्रिया देकर उस खूबसूरत बस्ती को आबाद करने में जुट गया।

इस पर बेटी ने कहा - तो फिर क्यों यह इलाका टूटा फूटा दिखता है? कई कई टुकड़ों में? इस पर जब मैंने कहा कि जिस समय उसने अंडे को फेंका वह अंडा असल में विशाल 'ब्लू ह्वेल' मछली के सिर से सीधे जा टकराया। जिस पर वह कई टुकड़ों में विभाजित हो गया! कुछ बड़े टुकडे तो कुछ छोटे। तो बेटी ने बड़े ही मजाकिया लहजे में कहा - बड़ा विशाल रहा होगा वह अंडा! और यह सुनकर मुझे भी हँसी आ गई। जब उसने कुछ और जानकारियों के बाबत पूछा तो मैंने उसे यह भी बताया कि पुस्तकों में लिखे के अनुसार इस क्षेत्र की जानकारी लगभग दो हजार साल पहले चीनी लोगों को थी और दूसरी शताब्दी में प्रसिद्ध रोमन भूगोलविद टोलेमी ने इस क्षेत्र को Angadman Island, Island of Good Fortune कहा था और यह भी रोचक है कि 1293 ई. के आसपास मार्कोपोलो ने इसे Angamaniun कहकर इन्हें 'चार पैरों वाला असभ्य मनुष्य' कहा था जिसे पंद्रहवीं शताब्दी में इटली के सैलानी निकालो काउंटी ने 'आइलैंड आफ गॉड' कहा था लेकिन अंडमान नाम की कथा में अभी भी बहुत पेंच है जबकि निकोबार के नाम के बारे में यह स्पष्ट है कि यह दक्षिण भारतीय शब्द नक्कावरण (नंगों का देश) का विगड़ा हुआ रूप है। मैंने यह भी बताया कि यह शब्द तनजोर के इनस्क्रिपसन में ग्यारहवीं सदी में मिलता भी है।

इस पर बेटी ने कहा कि इसका मतलब कि नाम को लेकर कुछ भी स्पष्ट नहीं है तो मैं पुलकित भाव से बोला कि इसीलिए तो इसमें इतनी रचनात्मक संभावना है। जहाँ कुछ स्पष्ट नहीं होता वहाँ अपनी तरह से समझने में कोई हर्ज भी नहीं है और यह भी की अंडमान की चर्चा का कारण भी यही है। यहाँ यह भी रोचक है कि जहाँ कुछ स्पष्ट नहीं होता वहाँ की कथा भी हल्की होती है और जो हल्का है वह अनिवार्यतः पुराना है !

मैंने आगे उसे यह भी बताया कि अंडमान की इस नाम कथा में हनुमान, 'हंडूमान' और अंडमान की चर्चा भी होती है जिसमे यह कहा जाता है कि हनुमान जी लंका जाने से पहले लंका का सर्वे करने के लिए यहीं पर ठहरे थे। लेकिन यह कथा मुझे न तो रोचक लगाती है न ही विश्वसनीय। इस पर उसने थोड़ा चौंकते कहा ...सर्वे! मैंने कहा - तो क्या, तुम क्या जानती हो। हनुमान जी उस समय भी तकनीक में हमसे बहुत आगे थे। और जब उससे मैंने यह बताया कि हमारे हिंदी विभाग में कुछ लोग तो हनुमान की तकनीकी जानकारी की तुलना में आज की तकनीकि को बहुत कमजोर मानते हैं और कई बार तो इस पर शोध भी करवाते हैं, तो उसकी मुस्कान देखने लायक थी। 'बड़ा समृद्ध है आपका विभाग!" जैसे फुसफुसाहट भरे शब्द उसके मुँह से निकले तो मैंने यों ही उसी अंदाज में जवाब दिया, यह जानते हुए कि अभी इन बातों को समझने का समय नहीं है। '...पूरा समकालीन समाज ही बड़ा समृद्ध है बेटा। इस समय तो सब कुछ अतीत में खोजा जा रहा है! मानों अतीत कोई कामधेनु है जिसकी अभ्यर्थना मात्र से आज सब कुछ मिल जाता है!" और यह कहकर एक लंबी साँस लेते हुए जब पुनः खिड़की की तरफ उचक उचक कर देखने लगा और यह अनुमान लगाने लगा कि हवाई जहाज के उतरने में कितना विलंब और है तब उसने फिर एक सवाल दागा ...अभी तो आप औरों का लिखा समझा रहे थे। आपको खुद क्या लगता है। मैंने उससे कहा निजी तौर पर मुझे यह 'हिंडमैन' का परिवर्तित रूप लगता है क्योंकि अँग्रेज इस क्षेत्र को "हिंदमैन" ही कहते रहे जो हिंदुस्तानी काले लोगों का देश था। यहाँ की यात्रा के समय उन्होंने इसे मजाक में 'हिंदमैन लैंड' कहा होगा जो बाद में हिंदी ने अंडमान के अपने रूप में ग्रहण लिया।

इतना सुनते ही बेटी ने कहा कि अल्लाह ने इसे इतना सुंदर बनाया था तब यह 'काला पानी' के रूप में क्यों कुख्यात हुआ। हाँ, तुम ठीक का रही हो। यह तब भी बहुत सुंदर था और अब भी उतना ही सुंदर है। यह न तब काला था और न अब काला है। इसे अँग्रेजों ने काला बना दिया क्योंकि उन्हें हमारे जैसे काले लोगों से बदला लेना था। इस नाम को भी हमारे हिंदुस्तानियों ने अपनी तरह से अपने असाधारण भय के कारण प्रयोग करना शुरू किया क्योंकि 1857 के बाद यहाँ जो भी हिंदुस्तानी आया वह वापस नहीं गया। पूरा गीत की बना है जिसे बड़ी खूबसूरती से 'बहती गंगा' में रुद्र काशिकेय ने दर्ज किया है - 'नागर नैया जाला काले पनिया रे हरी'! यूँ भी अँग्रेजों को हम काले लोगों से इतनी नफरत थी कि यहाँ पर कोई कैदी जब नहाने के लिए दो मग से अधिक पानी माँगता, तो यहाँ का अँग्रेज प्रबंधक बूट से मारता व गाली देते हुए यह याद दिलाता कि यह 'कालापानी' है कोई सैरगाह नहीं। यह बात और थी कि उनके लिए यहाँ किसी स्वर्ग से कम सुख नहीं था!

यह कथा सुना ही रहा था कि उसने फिर पूछा कि क्या अँग्रेजों के पहले भी यहाँ आदमियों के निशान मिलते हैं? 'नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता कि यहाँ पर आदमियों की आबादी कब से है किंतु इतना अवश्य है कि यह दुनिया के लिए एक परिचित जगह थी जहाँ अरब के सैलानी जावा व सुमात्रा की यात्रा पर जाते हुए यहाँ विश्राम करते थे। असल में मौर्य काल के पहले से लेकर अरब सैलानी व मार्कोपोलो की कथा यात्राओं में इस जगह का वर्णन मिलता है। ये सभी विद्वान इसके भौगोलिक अस्तित्व का पता तो देते हैं लेकिन इसके इतिहास को लेकर चुप हैं। हाँ आदमियों के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि कई सौ साल पहले से यहाँ आदिम जनजातियाँ रहती आई थीं जिनके साथ अँग्रेजों का टकराव भी होता था। अबरदीन की लड़ाई इसमें एक प्रमुख लड़ाई थी जिसमें अँग्रेजों का टकराव यहाँ के मूल निवासी ग्रेट अंदमानी से होता है। यूँ यहाँ कुल 6 जनजातियाँ मिलती है जिसमें ग्रेट अंदमानी, जारवा, ओंगी और सेंटीनलीस नेग्रितो मूल की तथा निकोबारी व शोम्पेंन मंगोलियायित मूल की मानी जाती हैं। चूँकि ये सभी अपने रंग में काले हैं इसलिए भी इसे काले लोगों का देश कहा जाता था। सच मानों तो यहाँ का इतिहास ही दंडी बस्तियों (पीनल सेटलमेंट) के इतिहास से शुरू होता है जिसे अँग्रेजों ने अपराध नियंत्रण के रूप में शुरू किया था जिसमे आगे चलकर राजनैतिक यातनाओं का दर्दनाक मंजर शुरू हुआ। उनकी चिंता में यह एक सामरिक महत्व की जगह थी जिसकी खूबसूरती से नहीं बल्कि साम्राज्यवादी स्थिति से इन्हें लगाव था और इसीलिए अपराधियों को यहाँ पर भेजकर इसे बसाने व अपना उपनिवेश मजबूत करने का उन्होंने काम भी किया। इसमें मजेदार बात यह थी यह जगह बिगड़े जहाजों को ठीक करने के लिए खोजी गई एक महफूज जगह मानी गई थी जहाँ हिंदुस्तानियों के मान हित व सुरक्षा के लिए कोई जगह नहीं थी। आगे चलकर इसी महत्व के कारण जापान की नजर भी इस क्षेत्र पर गई और 1942 से 45 के बीच यहाँ भीषण बमबारी की गई जिससे इसकी खूबसूरती थोड़े समय के लिए नष्ट हो गई। बाद में यहाँ बाहर से आकर बसे हमारे पुरखों ने इसे और भी सुंदर बना डाला और यही इनकी जिजीविषा कही जाती है जिसका एक सिरा यहाँ के सबसे मजबूत पेड़ पड़क से जुड़ता है तो दूसरा सिरा जंगली महुआ के पेड़ से। मजबूती व सुगंध के इस वरदानी क्षेत्र को इन लोगों ने जिस तरह से आबाद किया है उससे गर्व से हमारा माथा झुक जाता है। आगे मैंने यह भी बताया कि कहने को तो यह भी कहा जाता है कि हिंदू ऋषि अगस्त के मूत्र विसर्जन से यह बसा है और यह वही जगह है जहाँ पर वे खड़े होकर ऐसा कर रहे थे अन्यथा यह पूरा क्षेत्र जावा, सुमात्रा, थाईलैंड व वर्मा से मिला हुआ था। लेकिन इसमें कथा कम, हिंदू मन की कौंध ज्यादे है और यह अकारण नहीं हैं कि यहाँ के नेताओं में सावरकर छात्र जीवन से ही 'अभिनव भारत' जैसी संस्था से जुड़कर हिंदुत्व का पोषण कर रहे थे जिसकी परिणति आगे चलकर 'हिंदू महासभा' और 'संघ' के निर्माण में हुई।

बेटी ने फिर कहा कि तो 'नामकरण को क्या माना जाय'। और जैसे ही इसे बताना शुरू किया कि अंडे वाली कथा मुझे रोचक व विश्वसनीय दोनों लगाती है जैसे कि आकार के कारण ही जावा का नाम यमद्वीप पड़ा, कि एयर होस्टेज ने सूचना दी अब हमारा जहाज वीर सावरकर एयर पोर्ट पर शीघ्र ही लैंड करेगा। आप अपना बेल्ट बाँध लें और कुर्सी की पेटी सीधी कर लें। इस निर्देश के साथ ही हवा में 15 मिनट से चक्कर खाते हम धरती की ओर बढ़ने के उत्साह से उत्साहित हुए और फिर सभी हवा हवाई बातों को भूलकर धरती से टकराने की खट्ट आवाज का इंतजार करने लगे। हवाई जहाज जब पहली बार उतरते समय धरती से टकराता है और पायलट से किसी प्रकार का बुरा संदेश नहीं मिलता तो मैं ईश्वर को एक बार धन्यवाद अवश्य देता हूँ। यकीन मानिए तभी लगता है कि यह यात्रा सुखद रही अन्यथा उड़ते समय जो उत्साह रहता है उतरते समय वह थोड़ा फीका तो हो ही जाता है। असल में जब हम उड़ते हैं तब कहीं पहुँचने का उत्साह रहता है लेकिन जब उतरते हैं तब बचे रहने का मोह सताने लगता है। खैर हम उतरे और अपने भीतर उतरते चले गए। यूँ उतरना एक प्रकार का चढ़ना होता है जैसे कि झाँकना किसी को बहुत गहरे तक आँकना होता है!

तो खैर, इसी भावुकता से मुक्ति की कोशिश में मेरे मन में काला पानी की अनेक आकृतियाँ थीं जो मुझे बार बार बेचैन कर रही थीं और पढ़े व सुने वे सारे दृश्य याद आ रहे थे जिसमें काला पानी की यातनाओं के अनेक संस्मरण मौजूद थे। हमारा होटल एजेंट भी अपने यात्रा प्रबंधन में पहले दिन 'काला पानी' को ही दिखाना चाह रहा था और इसी काला पानी की छवियों के साथ हम होटल की तरफ निकल पड़े...

लेकिन सबसे पहले तो यही कि 'काला पानी' का अर्थ क्या है। एक तो यह कि यहाँ समुद्र का पानी काला है जिसे बचपन से सुनता रहा हूँ। लेकिन समुद्र बाकी जगह तो नीला होता है तो फिर काले का क्या अर्थ। यहाँ सीवर का पानी भी तो अपने काशी की गंगा की तरह नहीं पहुँच पाता। तब काला का क्या अर्थ। तो क्या इसका मतलब काले लोगों के पानी से है। यह हो सकता है क्योंकि यहाँ रहने वाली जनजातियाँ मंगोलायित और नेग्रितो संवर्ग की हैं जो काली होती हैं। लेकिन आदमी के रंग से पानी के रंग का क्या साम्य। लेकिन यह भी कि हो न हो अँग्रेज जब पहली बार 1789 में यहाँ आए थे तो काले लोगों को देखकर उन्होंने अपनी गोरी चमड़ी से अलग करने के लिए 'गोरा पानी' के बरक्स 'काला पानी' का नाम दिया हो। ऐसा संभव भी है क्योंकि जिस तरह का उच्चताबोध उन गोरे शासकों में व्याप्त था उसमें यह संभव भी है। लेकिन फिर वहीं बात। यहाँ उत्तरी अंडमान में 'काला पहाड़' भी हुआ करता था जहाँ यहाँ के मूल निवासी रहते थे जिसे बाहरी लोगों ने खदेड़ दिया तो वे निकोबार में चले गए। हो न हो यह नाम उन्हीं लोगों ने दिया हो जो निकोबार में रहकर भी अपने देवता पुलुगा की प्रार्थना करते रहे और यही काला पहाड़ बाद में अँग्रेजों द्वारा 'काला पानी' नाम से पुकारा गया हो। लेकिन अगर मगर अभी तक समाप्त नहीं हो रहा था कि तब तक मन में यह भी सवाल आने लगा कि कहीं यह हिंदुस्तान के क्रांतिकारियों के निर्वासन के बाद का एक परिहासात्मक नामकरण तो नहीं है क्योंकि असल काला पानी का आरंभ तो 1857 के बाद हुआ जब 1858 में कोलकाता से महाराजा जहाज के काले काले धुओं के बीच क्रांतिकारियों का एक दल यहाँ निर्वासित किया गया और दंडी बस्तियों को कैदियों से आबाद करने की यह कोशिश की गई। चूँकि धुआँ काला था जो समुद्र के पूरे परिवेश को काला कर रहा था। आदमीं काले थे क्योंकि वे गोरों के उपनिवेश थे। दिल काला था क्योंकि वे लगातार भारत माता को मुक्त करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। बस्ती काली थी क्योंकि यह निवासियों के लिए पानीदार नहीं थी जहाँ वे सम्मान से रह सकें और रहीम के इस दोहे को गुनगुना सकें - 'रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून'।

तो जब आदमीं के भीतर से पानी ही निकाल दिया गया तो रंग काला होना ही था। अब हिंदुस्तानियों के पास जूस तो था नहीं कि वे अँग्रेजों की तरह पी पी कर गोरे बने रहते! आराम भी नहीं था क्योंकि ये शोषण पर नहीं श्रम पर जीने वाले लोग थे जिनका पानी पसीने में लगातार बदल रहा था और पसीने का रंग तो काला होता ही है!

तो क्या मानूँ? इस अगर मगर लेकिन फिर भी के बीच अभी तक तय नहीं कर पाया कि काला पानी के नामकरण का रहस्य क्या है। कोई संतोषजनक उत्तर भी नहीं देता। कई लोगों से पूछा लेकिन संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। साहित्य तलाशा तो वह भी शांत है। समुद्र से पूछा तो वह लहरें लेने लगा। थोड़ा उकसाया तो अट्टहास करते हुए बोला - "बड़े आए हैं काला पानी का रहस्य जानने। काल तो समझते नहीं, चले हैं काला समझने। अरे जनाब यह तो बड़ी छोटी सी बात है कि जहाँ 'दाना पानी' नहीं होगा वहाँ काला पानी ही तो होगा। जाइए यहाँ से। चले हैं काला पानी काला पानी करने। हाँ नहीं तो!"

फिर अचानक एक झटका मेरे मन में आया और मिला मिला करने वाला ही था कि बगल में बैठी मैडम सुनीता ने धीरे से हाथ दबाते कहा - "कहाँ खोए हैं जनाब। यह देखिए अबरदीन बाजार। उधर देखिए घंटाघर। इधर, अरे इधर है आप की सेलुलर जेल। संभव है अपने पिछले जनम में आप भी कोई कैदी रहे हों या कौन जाने इसकी सलाखों के पीछे से नीचे की ओर झाँकती कोई खिड़की ही रहे हों। घंटा भी हो सकते हैं और कोल्हू भी। या यहाँ तब की क्रूरता का साक्षी पीपल का एकमात्र पेड़ ही रहे हों तो क्या आश्चर्य"! मैं अचानक वर्तमान में लौट आया और अपने विज्ञानबोध से सोचने लगा कि काश यदि इस पीपल के पेड़ में कैद शब्दों को डिकोड कर पाते तो सेलुलर जेल के एक एक दिन की घटनाओं को सुन पाते! वे चीखें। वह हाहाकार। वह सन्नाटा और इन सबके बीच बंदे मातरम का गूँजता हुआ महाकाशीय स्वर! दर्द के भीतर भी आजादी का महोल्लास कैसे फूटता है, यह तो हमारे पुरखे ही जानते हैं। याद आती हैं महादेवी - "ज्वार को तरणी बना मैं इस प्रलय को पार पा लूँ।"

तो अखिर आ ही गया जेल! काला पानी का सबसे खौफनाक मंजर! सघन नीले पानी को गझिन काला पानी में बदलने वाला क्रूर यंत्र। मनुष्यता की सबसे जघन्य पीड़ा! सभ्य होते समाज की आदिम बर्बरता का जीता जागता नमूना! जिसकी हर ईंट मनुष्यता के खून से रँगी हुई! लेकिन अभी जेल नहीं, जेल के तहखानों में चलते हैं जहाँ से इसका निर्माण शुरू होता है...

रास पर आस !

एक हाथ में चाय का प्याला
     दूजे हाथ में खंजर
     यह देखो ई रास है भईया
     उखड़ा उखड़ा मंजर!

रास आइलैंड का इतिहास बहुत रोचक है। सफलता व विफलता का जीवित दस्तावेज। हिंसा व मादकता का मूर्त रूप। शासक व शासित की कारुणिक कथा! शेष व अवशेष की धूमिल पटकथा! पोर्टब्लेयर के राजीव गांधी वाटर स्पोर्ट कांप्लेक्स के ठीक सामने विराजित यह आइलैंड अंडमान की भव्यता व दिव्यता की कहानी बयाँ करता है। अंडमान के पुराने विकसित क्षेत्रों में रॉस व चैथम सॉ मिल का भव्य इतिहास है जहाँ से यह क्षेत्र आबाद होता है। इसलिए हमें सुबह ही रॉस की और रवाना कर दिया गया। जिस जेटी से हमने मोटरबोट की सवारी ली वह राजीव गांधी की भव्य आदमकद प्रतिमा थी बिल्कुल एक अनोखे अंदाज में उठे हुए हाथ में अंडमान की आकृति में एक माला हाथ लिए। यह जिस तरह से उन्होंने हाथ में फेंकने के अंदाज में पकड़ रखा है उससे यह बोध होता है जैसे वे काला पानी के प्रतीक रूप में समूची जंजीर को ही समुद्र में दफन कर रहे हों। वहाँ से जब हम एक छोटे से मोटरबोट में बैठे तो उसकी गति व समुद्र की हलचल को देखकर बहुत डरे थे। साथ में पत्नी व बच्चों के होने से बाहर तो एक दुर्दमनीय आत्मविश्वास दिखा रहा था लेकिन सच यही है कि पूरे 10 मिनट की यात्रा में साँस अटकी हुई थी। लहरों के टकराने से बोट 5 फुट उछलती और समुद्र का पानी हमें भिगो देता। आँख कान नाक सब लावण्यमय। बेटी व मेरी साँस अटकी हुई थी और हम दोनों लगातार गंभीर व तनाव में रहकर न तो कैमरा पकड़ रहे थे और न ही फोटो खिंचवा पा रहे थे जबकि माँ व बेटे में जुगलबंदी चल रही थी। दोनों खिलखिला रहे थे और हमारी रोनी सूरत की अभिनंदनीय तस्वीर उतार रहे थे। मैं नाव को कसकर पकड़े था लेकिन पत्नी के हाथ में कैमरा था और धड़ाधड़ तस्वीरें उतार रही थी। मैं तैरना जानता हूँ फिर भी डरा था। पत्नी को तो पैर भी ठीक से मारने नहीं आता फिर भी प्रसन्न थीं। उनको उनके लाइफ जैकेट पर भरोसा था। मैं समुद्र की हलचलों से भयभीत। नाव लहरों के प्रबल वेग के कारण बहुत उछल रही थी लेकिन नाव की गति में कोई कमी नहीं। नाविक दीपक की आँखें बिल्कुल सधी जैसे समुद्र के हर गति से वाकिफ। गजब का आत्मविश्वास उसके चेहरे पर था। सुंदर उभरी हुई आँखें बता रही थी कि समुद्र को भीतर तक सोख लिया है। अगर यह निशानेबाज होता तो शायद अनूठा होता। हम जब थोड़ा चीखते तब भी वह न तो मुस्कुराता न ही कुछ बोलता। बस उसका पूरा ध्यान मोटर की स्पीड पर था। संभव है वह भीतर भीतर समझ रहा है कि यह तो रोज ही होता है।

तो इसी स्पीड बोट से उछलते कूदते लहरों के नमकीन स्वाद को चखते हम जब रास आइलैंड पर उतरे तो सबसे पहले हमारा स्वागत हिरणों ने किया। सभी लोग इनके साथ फोटो खिंचवा रहे थे और मैं सोच रहा था की आखिर ये इस वीराने में क्या कर रहे है। वहाँ एक सफाईकर्मी से पूछ दिया तो उसने बताया कि इन्हें यहाँ की रिक्तता को भरने के लिए छोड़ा गया है।

तो क्या यह वीरान है? आप को क्या लगता है। उसने आगे कहा - "और क्या। यहाँ कुछ नहीं है अब लेकिन एक दौर में यहाँ सब कुछ था। जानना हो तो वो जो सामने संग्रहालय है उसे देखिए। इसकी प्राचीनकालीन भव्यता को देखकर दाँतों तले अँगुली दबा लेंगे।'

तो खैर यह सब सुनकर पत्नी बच्चों के साथ इसके खंडहरों में फोटो खिंचवा रही थी और मैं इसकी भव्यता की खोज में इधर उधर भटक रहा था। लगभग एक घंटे के बाद जब हमारा मिलन हुआ तब तक इसके इतिहास से मैं परिचित हो चुका था। थककर मैं बेकरी के उस खंडहर के नीचे बैठ गया जहाँ यहाँ के चीफ कमिश्नर्स अपनी बीवी की बाँहों में बाँहें डाले एक हाथ में चाय का प्याला लिए आते और कुछ बिस्कुट का स्वाद चखते टॉपू की हालचाल लेते। बाद में उन्हीं चाय के प्यालों पर सजा भी तय करते! इसके ठीक सामने समुद्र था और पीछे स्विमिंग पूल। इसी के थोड़ी ही दूरी पर फरार का वह समुद्र तट भी था जो उस दौर में यहाँ का सबसे सुंदर बीच था लेकिन जो 26 दिसंबर 2004 को आए सुनामी में पूरी तरह जलमग्न हो गया। थोड़ी देर के फोटो सेसन के बाद पत्नी ने पूछा... कहाँ रहे इतनी देर तक, तो मैंने उन्हें बताया कि इस टापू की सबसे ऊँची जगह पर कमिश्नर का बंगला देखने चला गया था जिसे पीपल की जड़ों ने पूरी तरह आच्छादित कर रखा है। मैंने उनसे यह कहते कि तुम लोग भव्यता के उस भूत को देखने से वंचित रह गए, उन्हें बताया सचमुच में जिस तरह से इस टूटी इमारत पर पीपल की जड़ें ऊपर ऊपर मोटी रस्सियों जैसे फैली हुई थी वह एक विलक्षण दृश्य-बंध था। लगता है कि भागे हुए कमिश्नर को इन जड़ों ने वैसे ही बाँध रखा है जैसे ये हिंदुस्तानियों को बाँधा करते थे और वाईपर द्वीप के कठोर कारागार में छोड़ आते थे। नारियल के रेशे से बनी रस्सियों ने अपने पुरखों के अपमान का बदला यूँ लिया और जब मैं इन जड़ों के ऊपर थोड़ा सुस्ताने के लिए बैठ गया तब बिल्कुल करीब से मेरे कंधे पर एक पत्ता गिरा और मैं सजग हो गया। उस समय मुक्तिबोध की काव्य पंक्तियाँ अचानक मेरे जेहन में कौंधी... कहीं एक पत्ता खड़का। थोड़ी देर बाद बेटी ने यहाँ के बारे में कुछ जानने की इच्छा जताई, जो जाहिर सी बात है, थकान के बीच ऊर्जा के संचार जैसा ही रहा होगा तो जो बताया उसका संशोधित संस्करण आप भी सुनें...

असल में जैसा कि सभी जानते हैं अँग्रेजों को बंगाल की खाड़ी में स्थित इस द्वीप की जानकारी यहाँ भारत आने से पहले थी। इसे वे "हिंड् मैन" के नाम से पुकारते थे जो अनुमान के मुताबिक बाद में हिंदुस्तानियों द्वारा अंडमान के नाम से ख्यात हुआ। इसी क्षेत्र की समझ विकसित करने व यहाँ बंदरगाह की संभावना की तलाश करने ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने फोर्ट विलियम की कौंसिल के सदस्यों की सिफारिश पर तब के गवर्नर जनरल जनरल वारेन हेस्टिंग के आदेश से जलीय सर्वेक्षक डैनियल रॉस को यहाँ भेजा गया जिन्होंने बस्ती के लिए इस पूरे क्षेत्र में रॉस को इसकी भौगोलिक मजबूती के कारण सबसे उपयुक्त पाया। इसी रिपोर्ट के आधार पर सितंबर 1789 में नवल कमांडर आर्किबाल्ड ब्लेयर को यहाँ भेजा गया जिसने इस जगह को रॉस के नाम से पुकारा और खुद के नाम से आज के पोर्टब्लेयर को पहचान दी जो तब एक ताकतवर बंदरगाह था। असल में हुआ यह कि ब्लेयर जब यहाँ पहुँचा तब वह सबसे पहले चैथम द्वीप में पहुँचा जहाँ उसने बस्ती बसाने का कार्य आरंभ किया और ऐसा उपनिवेश के विस्तार के दायरे में ही किया गया जिससे यहाँ से समुद्र पर नियंत्रण रखा जा सके। यहाँ उसने द्वीप के दलदल को पाटा। ऊँची मजबू्त लकड़ियों जैसे पड़क और महुआ को पहचान दी जिसको मुख्य वाणिज्यिक पेड़ के रूप में पहचाना गया। इस पड़करूपी 'पाताल सोरी' पेड़ के माध्यम से उसे साम्राज्य विस्तार का मौका मिला और लोकल लोगों से उसने सौहार्द्रपूर्वक संबंध बनाते हुए ब्रिटिश साम्राज्य का झंडा यूनियन जैक लहराया और उसने इस महासागर में एक छोटा सा सुंदर शहर बसा दिया जहाँ गोदामघर, अस्पताल घाट, के साथ फल व सब्जी मंडियों का विकास हुआ। यहाँ से लकड़ी का निर्यात होना था लेकिन यहाँ के मौसम की प्रतिकूलता के कारण बीमारी की हालात में मौत होने लगी और अंततः 1796 में इस पहले सेटलमेंट को बंद कर दिया गया। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में जो अनुभव व अध्ययन था उसके कारण यहाँ फिर 1858 में बस्ती बसाने का कार्य शुरू हुआ तो यह भी बात जुड़ी कि यहाँ दुर्घटनाग्रस्त जहाजों की मरम्मत का काम होने के लिए भी यह बहुत जरूरी कदम है। फिर तमाम सिफारिशों के आधार पर डॉ जे.पी. वाकर के नेतृत्व में 1858 के मार्च में 200 विद्रोही बंदियों का एक दल दो जहाजों में भरकर पोर्टब्लेर भेजा गया और चैथम पर पुनः इन लोगों ने डेरा डाला। इसके ठीक पहले इंजीनियर मान को यहाँ पर भेजा जा चुका था जो वर्मी मजदूरों के सहयोग से यहाँ की सफाई कार्य में जुटे थे। अब जब सेटलमेंट सुपेरिंटेंडेंट के रूप में वाकर आया तो यहाँ की सफाई व विकास का काम तेज हुआ लेकिन स्वयं यह रॉस पर रहने की दिशा में लग गया और इन्हीं कैदियों की मेहनत से इस द्वीप को विकसित किया जिसे कभी रॉस ने यहाँ के लिए सर्वोत्तम पाया था। सबसे पहले इन लोगों ने यहाँ से इनके मूल निवासी ग्रेट अंदमानी को खदेड़ा। उस समय इसका क्षेत्रफल 6 वर्ग किलोमीटर था जहाँ अफसर, फौजी, भारतीय व्यापारियों का परिवार रहता था। इसे अंडमानी में 'चोंग एकी बुड' कहा जाता और किसी भी प्राकृतिक आपदा को सहने में यह सक्षम था। जल्दी ही यहाँ गिरजाघर, अस्पताल, डाकघर, सुपरिटेंडेंट का भव्य बंगला, स्विमिंग पूल, बिजली घर, टेनिस कोर्ट का निर्माण कर दिया गया। साथ ही संचार व नावों के यातायात के लिए मस्तूल व निरीक्षण टावर भी लगाए गए। यहाँ का फरजंद अली स्टोर बहुत संपन्न था जहाँ जरूरत का हर सामान मिल जाता। उस समय 500 की आबादी वाले इस आइलैंड पर सेटलमेंट क्लब, सबोर्डिंनेट क्लब और मंदिर क्लब हुआ करता था जिससे यह पता चलता है कि क्लब संस्कृति से वे उस जमाने में ही जुड़े थे। उनकी यह क्लबिंग असल में औरों को अपने सामने नीचा दिखाती थी। पहले अपने को एक जैसा बनाओ फिर अन्यों से अलग हो जाओ। क्लबिंग के इस दायरे में रॉस उस समय एक सुंदर दुल्हन की तरह रात में दूर तक चमकता था जहाँ महाराज जहाज अपना लंगर डाले साम्राज्यवादी सत्ता का बोध कराता और इसी के कारण इसे 'पेरिस ऑफ द ईस्ट' के नाम से जाना जाता। धीरे धीरे जहाँ रॉस पर चमक दमक बढ़ने लगी वहीं कैदियों के भीतर असंतोष भी, जिसका परिणाम यह रहा कि उनके लिए 1864 में वाईपर द्वीप पर जेल का निर्माण शुरू हुआ जो आगे आने वाले सेलुलर जेल का आरंभ था।

इसी रॉस आइलैंड पर इस दशहरा को घूमते हुए हम यहाँ के इतिहास से परिचित हो रहे थे लेकिन अँग्रेजों की इस आरंभिक आरामगाह पर टहलते हुए मेरा ध्यान उनके आलीशान भवन के खंडहरों पर तो गया ही, जो कि जाना ही चाहिए, लेकिन इससे अधिक ध्यान उन पीपल की जड़ों पर गया जो पर्याप्त ऊँचाई पर एक समय में बसे इन जर्जर ध्वस्त मकानों को आज भी सुरक्षित किए हैं। कई जगह लगता है कि ये पेड़ पुरखों की इस धरती को ये अपने खंडहरों में भी बचाए रखना चाहते है। यह भी लगा कि अँग्रेजियत के इस कर्कश व क्रूर मिजाज के दस्तावेज के रूप में भी ये इस खंडहर को अपनी भुजाओं में आच्छादित किए हुए हैं ताकि हम यानी आने वाली पीढ़ी यह जान सकें कि हमारी आधुनिक उपस्थिति के पीछे कितनी कुर्बानियों के इतिहास छुपे हैं। एक आइलैंड पर जहाँ वे शानदार नाच गाना के साथ दावतें काटते रहे, वहीं जबरिया लाए गए स्वाधीनता के जज्बे से जरखेज हमारे पुरखे उबला हुआ चावल भी खाने को तरसते रहे। जहाँ एक तरह वे चीखते चिल्लाते जनरेटर की आवाज में जश्न मनाते रहे वहीं उनके द्वारा छोड़ी गई नीम रोशनी में हमारे पुरखे अपने वतन की आजादी का स्वप्न देखते रहे। जहाँ उनके लिए यह पूरा आइलैंड जगमगाती रोशनी से भरा एक पूरा जहाज था वहीं ये टिमटिमाती लालटेन की रोशनी में या यह कहें कि उनके द्वारा समुद्र में फेंके गए प्रकाश की रोशनी में, इन अँग्रेजों की सुख सुविधा का ख्याल करते इनके लिए आनंद की सामग्री जुटा रहे थे जिसमें स्नानगृह, टेनिस कोर्ट, मिनरल वाटर प्लांट जैसी सुविधाएँ शामिल थीं। एक तरफ जहाँ विदेश से आकर यहाँ ये छुट्टियाँ मनाते रहे और ठीक समुद्र तट पर स्वीमिंग पूल का मजा लेते रहे वहीं हमारे पुरखे केवल एक मग पानी से स्नान कर अपने जीवन का कठिन अध्याय संपन्न करते रहे। 200 बंदी स्वाधीनता प्रेमी कैदियों से 1858 में शुरू हुए इस रॉस के विकास के इतिहास में 1941 के भूकंप ने खलल पैदा किया जिसमें यह पूरी तरह ध्वस्त हो गया। यह भी कहा जाने लगा की रॉस अब धीरे धीरे डूब रहा है जिसके कारण चीफ का बंगला पोर्ट ब्लेयर में शिफ्ट कर दिया गया जिसकी समर कैपिटल के रूप में माउंट हेरिएट को विक्सित किया गया और इशान रोज वूड व फिने टीक से बने सभी लकड़ी की सामानों को हटा लिया गया। और रह गया वह मलबा जो भुतहाघर के रूप में बचा है जिसमें हमारे पुरखों की साँसों का आना जाना लगा रहता है। जो थोड़ा बहुत बचा था उसे 42 से 45 के बीच के जापानी हमलों में नष्ट कर दिया गया जब जापानियों ने यहाँ पर बंकर बना कर इसे युद्ध का क्षेत्र बना डाला। 23 मार्च 1942 से 9 अक्टूबर 1945 तक यहाँ जापानी सेना का कब्जा था जिसने कई जुल्म ढाए और यहाँ के पूरे वातावरण को नष्ट कर डाला। अब यहाँ अतीत के गहरे निशान हैं जिसे प्रकृति ने अपनी हरियाली से छोप रखा है। चीफ कमिश्नर के आलीशान बंगले की शान से लेकर बेकरी हाउस की सुगंध सभी यहाँ के मलबे में कैद है। इसके मलबे को पुरखे रूपी पीपल के सघन व विशाल पेड़ अपनी भुजाओं में कसकर अभी भी पकड़े दिखाई देते हैं मानों यहाँ हर आने वाले से कह रहे हों कि...

'बेटा फोटो लेकर ही जाना ताकि सनद रहे कि इस धरती पर कभी तुम्हारे पुरखों ने एक हाहाकारी जीवन जिया था, सिर्फ तुम्हारी स्वाधीनता के लिए। और उस स्वाधीनता के लिए जिसको लेकर तुम गाहे ब गाहे नाराज होते हो और अभिव्यक्ति की हर सार्थक व सृजनशील संभावना में सत्ता के दमन का प्रतिकार करते हो। क्या तुमने कभी सोचा कि अँग्रेजों को हमारे नारों से इतना गुस्सा क्यों आया कि एक पूरी सेलुलर जेल की काल कोठरी ही बना डाली और इस सुंदर, स्वच्छ, हरीतिमा से युक्त 'नीला पानी' के इस भूगोल को 'काला पानी' बना डाला। सोचना। उत्तर मिल जाएगा!''

तो इन्हीं अनुभूतिओं के साथ इसके खंडहरों में भटककर जब हम वापस जा रहे थे तो यही सोच रहे थे कि हम हर प्रकार की साम्राज्यवादी सोच से मुक्त रहकर अपनी संस्कृति के विराट मूल्यों को समझते हुए "दूषण दहन" करें और अग्रगामी सोच व चिंतन के साथ अपने भीतर के टिमटिमाते ही सही, दीपक में यथासंभव अपनी चेतना की उर्वरा शक्ति से रोशनी की हर संभावना को तलाशते रहें। यह इसलिए भी जरूरी है कि साम्राज्यबोध केवल बाहर से नहीं आता वह अपने भीतर के 'अभिनव विजेता' भाव से भी आता है।

साम्राज्य का एक नमूना लिए जब हम चैथम सॉ मिल में दाखिल हुए तब हमारे टूरिस्ट गाइड ने बताया की यही वह आरंभिक जगह है जिसे अँग्रेजों ने विकसित किया था। इस आइलैंड को पोर्टब्लेयर से एक जेटी जोड़ती है जो 1930 में बनाई गई थी। रास्ते में एबरडीन बाजार का घंटाघर भी दिखा जो प्रथम विश्व युद्ध के विजय की स्मृति में बनाया गया था। चैथम में यूँ तो लकड़ी काटने व ढोने के बड़े ही रोचक तरीके दिखे लेकिन वह मंजर भी दिखा जिसमे 1942 से 45 के बीच हुई बमबारी में ये बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुआ था। स्वयं 15 अगस्त 1943 को यहाँ पर जापानी सैनिकों के विरुद्ध अँग्रेजों द्वारा 70 बम गिराए गए थे लेकिन इसमें भी कुछ ऐसे नायक थे जिन्होंने इस मिल को बचा लिया था।

दुर्गा प्रसाद इन्हीं जिंदादिल लोगों में एक थे। हुआ यह की जब अँग्रेजों को लग गया कि इस द्वीप पर जापानी सेना ने कब्जा कर लिया है तो वे इन्हीं को चैथम मिल का चार्ज देकर चले गए और हिदायत दी कि जापा सेनानी के यहाँ चैथम में आते ही इसे डायनामाईट से उडा दें। लेकिन इन्होंने ऐसा नहीं किया बल्कि बहाना यह किया कि स्विच तो दबाया लेकिन विस्फोट ही नहीं हुआ। ऐसा करके इन्होंने सैकड़ों परिवारों को भुखमरी से बचा लिया क्योंकि उस समय यह आय का मुख्य साधन था। दुर्गा प्रसाद की इस कुर्बानी को आज भी यहाँ स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है जिस पर हर आने वाले हिंदुस्तानी का मस्तक गर्व से झुक जाता है। चैथम के इस गर्व व गुरूर को यहाँ के समुद्री संग्रहालय 'सामुद्रिका' और खुद यहाँ के स्मारक में सुरक्षित रखा गया है और यह भी लगता है कि इस 'दहकती' आरा मशीन ने पोर्ट ब्लेयर को कितना बचाया है।

सेल का सानिध्य !

पेरिस के 40 भुजाओं वाले 'बैस्टायिल जेल' की याद दिलाता अंडमान का यह 'भारतीय बैस्टायिल' इतिहास में 698 काल कोठरियों और 7 विशिष्ट भुजाओं से बना, जिसमें अब महज 3 शेष हैं, एक हाहाकारी परिसर है जो 1979 से राष्ट्र को समर्पित होकर भारत के गौरवशाली इतिहास का ज्वलंत प्रतीक है। कहते हैं इसकी हर ईंट हिंदुस्तानी क्रांतिकारियों के खून से रँगी है लेकिन उसमें एक आजाद भारत की अखंड छवि के नींव का जज्बा भी मौजूद है। इसके भीतर आज भी पुरखों के द्वारा चलाए गए कोल्हू और नारियल के कूटने की आवाज सुनाई देती है। कर्कश जेलर बेरी के कोड़े, वार्डर के लात और जूते तथा जेलर के द्वारा पाले गए गुंडों की पिटाई से तथाकथित "तिरस्कृत कोठियों" से उठने वाली दर्दनाक चीखों से यह परिसर अभी भी हाहाकार करता है। इन्हीं हाहाकारी गूँजों से भरे जेल परिसर के मुख्य द्वार पर हम हैं जहाँ बड़े ही कलात्मक ढंग से अँग्रेजी में लिखा गया है - 'सेलुलर जेल'। सीधे नहीं अर्धचंद्राकार रूप में। 180 डिग्री के कोण में। यानी हिंदुस्तान का आधा इतिहास यहीं लिखा गया ऐसा मुझे पहली दृष्टि में लगा। यह न होता तो सामासिकता न होती। शायद आगे के दिनों में लिखा गया हिंदुत्व का पीड़ादायक इतिहास भी ऐसा न होता जैसा आज है। हिंदुत्व वर्तमान की निरंकुशता से मुक्ति का अतीतगामी हथियार है जिसका इतिहास भी इन्हीं ईटों से शुरू होता है लेकिन जिसने बदलते समय में अपने को बदलने की बजाय और भी आक्रामक बनाया। इसके साथ ही एक नीला जल अकारण काला भी न हुआ होता जिसके समुद्र में अनेक जीती जागती जिंदगियों का जीवित इतिहास आज भी बह रहा है। कभी वह मोती और मूँगा, तो कभी मछली और कछुआ बनकर। यही पर 'कच्छपावतार' के कच्छप की उस पीठ का नाभिक भी है जो संपूर्ण धरती को न सही, अपनी धरती को आज तक धारण किए है अन्यथा पूरा क्षेत्र जाने कब के डूब गया होता।

तो इन मनोभावों के साथ जब हम प्रवेश द्वार से भीतर प्रवेश किए तो सबसे पहले मेरा ध्यान गणेश सावरकर की इन पंक्तिओं की ओर गया जो बड़ी खूबसूरती से दीवार की एक पट्टी पर टँगी हुई थीं - 'यह तीर्थ महातीर्थों का है / मत कहो इसे काला पानी / तुम सुनो यहाँ की धरती की / कण कण से गाथा बलिदानी। (ध्यान दें वीर सावरकर के बड़े भाई ये वही गणेश सावरकर हैं जो स्वयं सेलुलर जेल में थे और पूरे एक साल तक दोनों भाइयों को पता ही नहीं था कि वे दोनों इसी हाहाकारी परिसर के अलग अलग कमरों में कैद हैं।) जब तक हम इस कविता को पढ़ रहे थे, हमारा ध्यान इसी के पास के लिखे एक बोर्ड पर गया जहाँ लिखा गया था - 'सेलुलर जेल, ब्रिटिश राज की बर्बरतापूर्ण अनकही यातनाओं की स्मृति है और उसके विरोध में निर्मित क्रांतिकारियों की साहसिक अवज्ञा का मूक साक्षी कारागार!' इन दो संदर्भों को पढ़ने के बाद तो हमारे ऊपर एक सम्मोहन सा छा गया जिसे और संवेदनशील बनाने का काम किया - पुरखों की याद में प्रवेश द्वार के बाईं तरफ बना विजय स्तंभ जिसकी सतत जलती लौ में हमने पुरखों को नमन किया। जैसे करवा चौथ के चंद्रमा में स्निग्ध प्रेम की छटा दिखाई देती है वैसे ही इस जलती हुई लौ में पुरखों के तेजस रूप का हमें आभास हुआ और यह भी कि इसी रोशनी के सहारे एक सामासिक संस्कृति अपनी उन्नत दिशा में विकसित होती है और विकास के विविध सोपान से गुजरती है। त्याग व बलिदान की इसी रोशनी में विकास व तकनीक का मार्ग प्रशस्त हो ऐसा संकेत हमें परिसर में प्रवेश करते ही मिलने लगता है और जैसे ही थोड़ा आगे बढ़ते है, एक पुराने भरे पूरे पीपल के पेड़ के दर्शन होते है। वाह कितने चालाक थे हमारे पुरखे। अपने त्याग व बलिदान को भूतों के बसेरे में न बदलने के लिए उन्होंने अपने देवत्व की निशानी स्वरूप इसी पीपल को यहाँ छोड़ रखा है जिसमें भूत नहीं देवता बसते हैं। कहते हैं कि यदि यह पीपल न होता तो निश्चित ही यहाँ भूतों का बसेरा होता और लोग यहाँ आने में भी डरते। फिर यहाँ देश के नागरिकों से ज्यादे बिहार के 'हरसू ब्रह्म' जैसे ब्रह्मों की जरूरत होती और पर्यटन से ज्यादे यहाँ ओझाई का बाजार गर्म रहता!! लेकिन पीपल ने इन सब से हमें मुक्ति दिलाई है और सैकड़ों बलिदानी लोगों की हत्याओं का साक्षी यह परिसर यदि आज भी हमें बुलाता है, पुचकारता है और बगैर डराए दुलराता है तो यकीन कीजिए, हमारा इतिहास कुर्बानियों के एक बड़े लक्ष्य से आपूरित है। इसी पीपल के नीचे थोड़ा सुस्ताने के बाद हम निकल पड़ते हैं इसके बचे हुए तीन भुजाओं वाले सेल को देखने जो अपने खालीपन के बावजूद झायँ झायँ करने की जगह हमें मूक रूप से अपने इतिहास से अवगत करा रहा था। बाप रे बाप क्या हैंडल है! कुंडा विचित्र आकार का। देखते ही डर लगे। मोटे सीकड़ जैसा। पूरी दीवार में जड़ा हुआ। विशाल नख दंत से विन्यस्त। रोशनदान ऐसा कि बाहर की हवा जब आए तो झुककर आए और गलती से भी अपनी ताजगी में तनने की कोशिश करे तो लहूलुहान हो जाए! कहें कि छिल जाए! और जो भीतर की हवा बाहर जाए जो गला कट जाय! लोहे के दरवाजे ऐसे कि भीतर का निचाट सूनापन बाहर निकलते ही इसके पंजों में फँस कर फड़फड़ाए। और गैलरी तो भगवान ही बचाए। यदि कभी खुली हवा के लिए खोली भी गई तो फाँसी के ठीक पहले के दर्दनाक मंजर को देखकर काँप जाय। यहाँ मौत के पहले भगवान के नाम पर मौत की परिक्रमा कराई जाती है। आखिरी इच्छा पूछी जाती है जैसे इसके पहले इच्छाओं का बड़ा सम्मान ही किया गया हो! निकलते ही फाँसी घर का दृश्य जो बनाया ही इसलिए गया था कि क्रांति की सारी हवा निकाल दी जाय और फिर सूखे चाम जैसा समुद्र में क्रांतिकारियों को जीवन यापन के लिए छोड़ दिया जाय। गुलामी यातना से ही नहीं यातना के भय से भी आती है, यही सब ओर दिख रहा था और तेल पेरने। रस्सी बरने जैसे अँग्रेजों द्वारा कराए जा रहे नृशंस कार्य तो इन्हीं के ऊपरी लक्षण थे।

चारों तरफ भरी भीड़। सब ठसाठस! सब सेल को भीतर से देखने को आतुर। कई नव विवाहित जोड़े अपने अपने 'अर्ध आत्माओं' को भीतर कैद करके बाहर से फोटो लेते हुए। बच्चों को भी भीतर बंद कर बाहर से फोटो उतारी जा रही है। फोटो में सभी मगन मुस्कुरा रहे हैं लेकिन सभी के भीतर पुरखों की कुरबानी की ताजगी बनी हुई है। ऊपर, नीचे, मध्य में लगे लाईट हाउस। सभी फाँसी घर, पूजा घर, और सब ओर उमड़ते हुए लोग। कुछ थक कर आराम करते। कुछ थके थके चलते चलते। लेकिन एक सेल ऐसा जिधर सभी जा रहे है। यह दाहिने ओर का तीसरा तल्ला है। कमरा एकदम किनारे पर। चलते चलते मेरे साथ के सभी सदस्य थक चुके हैं। मैं सभी को 'पुरखे पीपल' के नीचे बैठाकर बेटे को लेकर उसी तीसरे तल्ले की तरफ निकल पड़ता हूँ और एक पर्यटक से पूछ ही देता हूँ कि ऊपर है क्या! 'अरे भाई सावरकर सेल'। ओ वीर सावरकर। तो इसी सेल में कैद थे वे। एक खतरनाक कैदी की तरह। जल्दी जल्दी आगे बढ़ता हूँ क्योंकि शाम के साढ़े चार हो रहे हैं और पाँच बजे तक यह पूरा परिसर खाली करना है ताकि छ बजे से साउंड एवं लाइट शो देखा जा सके जिसके बारे में पहले ही सुन रखा था और यह भी कि इस कार्यक्रम को ओम पुरी ने अपनी आवाज देकर बहुत मर्मग्राही बना दिया है।

अंदर बहुत भीड़ है। लोग सावरकर की फोटो के साथ फोटो उतार रहे हैं। उनका गिलास व कसोरा रखा हुआ है जिसे देखकर मेरा मन बहुत विचलित हो गया। सहसा उनकी आत्मकथा 'काला पानी' में आए 'नेचर्स काल' शब्द मुझे याद आया और उस प्रसंग को यादकर कि 'सेल में शाम पाँच बजे बंद करने के बाद रात में पेशाब अथवा किसी अन्य प्राकृतिक आवश्यकता के लिए टिन का एक छोटा डब्बा दिया जाता था जो एक बार में ही "ओवर फ्लो" करने लगता था', मेरी आँखें भर आईं। वहीं एक जगह बोरी से बना कपड़ा टँगा हुआ नजर आया जिसे कड़ी सजा की स्थिति में कैदियों को पहनाया जाता था। खैर, देखने से उस समय की क्रूरता का अनुमान कठिन था। यह तो शाम के साउंड शो में पता चला कि सावरकर को खतरनाक कैदी के रूप में वहाँ रखा गया था जिसका एक लंबा वृत्तांत सावरकर ने अपनी पुस्तक 'काला पानी' में लिखा है।

तो अंडमान का इतिहास इसी सेलुलर जेल का इतिहास है और इस जेल का इतिहास भारतीय क्रांतिकारियों के जज्बे का इतिहास है। इसके संग्रहालय में प्रमुख क्रांतिकारियों की तस्वीरों के साथ उनके जीवन की मुख्य कथा भी दर्ज है जिससे यहाँ आने वाले लोगों को जानकारी मिल जाती है। यहाँ पर किस किस का नाम लूँ। सभी अपनी जिद व जूनून में यहाँ की दीवारों पर टँगे हैं और जाने कब से हमें घूर रहे हैं। इन तस्वीरों में इंदुभूषण सिंह, बाबा भान सिंह, पंडित राम रक्खा, महावीर सिंह, मोहित मोइत्रा के साथ गणेश व वीर सावरकर की तस्वीरें हैं जिनकी आँखें अभी भी अपने स्वाभिमान व जज्बे का पता दे रही थीं। वर्मा मंडले केस में आजीवन सजा पाए पंडित रामरखा तो अपने जनेऊ की जिद में ही तीन साल की भूख हड़ताल के बाद 1919 में शहीद हो गए। लाहौर षड्यंत्र केस में सजा पाए बाबा भान सिंह को जेल रक्षकों ने इतना मारा कि 1917 में शहीद हो गए। 1933 की सबसे बड़ी भूख हड़ताल में सोशल रिपब्लिक आर्मी के महावीर सिंह, बंगाल की युगांतर पार्टी के मोहित मोइत्रा और अनुशीलन पार्टी के मोहन किशोर नामदास की शहादत को कौन भूल सकता है।

इस संग्रहालय में एक अच्छी बात यह भी दिखी कि कई स्वाधीनता सेनानियों द्वारा लिखे गई आत्म कथा के चुने अंशों को यहाँ बड़ी खूबसूरती व सम्मान से दर्ज किया गया है जिससे यहाँ के तत्कालीन हाहाकार को आसानी से समझा जा सकता है। उल्लासकर दत्त की 'प्रीजंस लाइफ', बरिंदर कुमार घोष की 'द टेल ऑफ माई लाइफ', वीर सावरकर की 'काला पानी', शतींद्र नाथ सान्याल का 'बंदी जीवन', उपेंद्र नाथ बनर्जी की 'द स्टोरी ऑफ माई प्रिजन लाइफ', के आत्मकथा के उद्धृत अंशों से यहाँ के हाहाकारी जीवन का पता मिलता है। इन्हीं से गुजरते पता चला कि जिस 'बाबा बेरी '(उल्लासकर दत्त मजाक में इसे बाबा कहते थे) की क्रूरता की निशानियों से सेलुलर जेल का कोना कोना पटा है वह मूलतः आयरिश था लेकिन हिंदुस्तानियों को दंड देना वह अपने लिए ईश्वर का आदेश मानता था। अगर आज वह जिंदा होता तो निश्चय ही 'आई.एस.आई.एस.' की आतंकी क्रूरता का सबसे बड़ा सिद्धांतकार होता! वह धरती पर अँग्रेजों की 'सभ्यता गत भूमिका' का सबसे बड़ा पैरोकर था।

बहरहाल इन्हीं टँगे आत्मकथात्मक अंशों को पढ़ने की प्रक्रिया में जब मुझे थकान महसूस हुई तब मैं जाकर पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गया। बहुत सारे काश व कयास के बीच मुझे लगा कि काश ऐसा होता कि पर्यटकों में से कोई एक सेलुलर जेल में घूमते टहलते अचानक एक सेल के सामने ठहर जाता और जोर से चिल्लाता - मुझे देखो मैं ही हूँ भान सिंह... यही है मेरी सेल जहाँ कैद कर मुझे जेलर बेरी ने इतन मारा कि पानी भी नहीं माँग सका! व देखो उधर जहाँ दो भुजाएँ मिलती है वहाँ कोल्हू से पशुवत तेल निकालते निकालते मेरी हाथ व पाँव छिल जाते थे! इन कसोरों को जरा गौर से देखो इनमें अन्न नहीं चावल का माँड़ मिलता था जिसके भरोसे दिन भर काम लिया जाता था... नीचे देखो... वहाँ... फाँसी के ठीक पहले स्नान ध्यान कराया जाता था और वहाँ, ऊपर जब लाईट जलती थी तब समुद्र में दूर तक पता चल जाता था कि आज कोई टपक गया!

लेकिन ऐसा आज तक नहीं हुआ। पुनर्जन्म की सारी गढ़ी खबरें धर्मात्माओं व पुजारियों के इर्द गिर्द ही घूमती रहीं है। कोई क्रांतिकारी इसमें आज तक शामिल नहीं हुआ। अब यह कौन बता सकता है कि पुनर्जन्म झूठा है या फिर क्रांतिकारियों का पुनर्जन्म नहीं होता! लेकिन हमें तो इसका इंतजार रहेगा कि कभी कोई व्यक्ति यहाँ आकर एक ऊँची आवाज में देश ही नहीं, संपूर्ण मनुष्यता को बता दे कि वह काला पानी का खारा इतिहास जानता है। लिखा पढ़ा नहीं, बिल्कुल आँखों देखे हाल जैसा। जब तक ऐसा नहीं होता, मैं पुनर्जन्म के हर किस्से को झूठ मानता रहूँगा!

कभी कभी लगता है हम सब भूले हुए लोग हैं जिसकी याददास्त वापसी के लिए किसी बड़े करेंट की जरूरत है। सेलुलर जेल जैसी जगहें एक बड़ा करेंट हो सकती हैं, इस पर तो सोचा ही जा सकता है।

पानी पर पुरखे :

         लहर पर लहर उठती रहे
         लहर लहर में तुम्हारी खुशबू बहे
         ओ मछलियों!
         तुम्हारी आँखों की नमी यूँ परियों की कथा कहे
         रेत तो फिर भी जमेगी हवा जो है
         उड़े जो नमक वह स्वाद भर अपना गहे
         व्यथा अपनी छुपाए कथा बस भाषा दहे
         अब तक जो सहे!
         उठती हैं लहरें तो याद आता है अतीत
         गिरती हैं तो रेत में लिपटा सरकता है भविष्य
         सूखी हुई देह में चिपका जो नमक तब
         खिलखिलाता है वर्तमान
         वर्तमान यूँ गुदगुदाता है
         आदमी बस नमक बन
         फिजाँ में फैल जाता है...

अंडमान की इस यात्रा में हैवलॉक की यात्रा बहुत रोमांचित कर रही थी। पोर्टब्लेयर में दो दिन रहने के बाद हम 23 को हैवलॉक के लिए निकल लिए। यूँ तो यहाँ से सरकारी जहाज के साथ मक्रूज व ग्रीन ओसन नाम के जहाज भी हैवलॉक की यात्रा करते हैं लेकिन मक्रूज से यात्रा करना काफी रोमांचक होता है ऐसा हमें बताया गया था। इस कारण हमने मक्रूज को ही चुना और पहुँच गए हार्बर। अंदर तक बस से हमें भेजा गया और बिल्कुल हवाई जहाज वाला अंदाज। सुरक्षा जाँच और ढेर सारी औपचारिकता। वाह क्या दृश्य था। जहाज लंगर पर था और इसके दबाव से जीवट जेट्टी भी काँप रही थी। जिस समुद्र को चीरते हुए आगे इसे जाना था वह समुद्र अभी अपनी लहरों से किनारे पर ही डरा रहा था। मेरे बेटे ने मुझसे पूछा - इसी से जाना है? मैंने कहा - हाँ, तो उसने कहा यह तो बहुत हिल रहा है। मैंने कहा - चिंता न करो'। जो हिलते हैं जरूरी नहीं कि वे कमजोर ही होते हैं। 'खैर, वहाँ का दृश्य अद्भुत था। सभी लोग जहाज के साथ फोटो खिंचवाने में मस्त थे और उधर जहाज के क्रू मेंबर्स लाइन में लगने की बात कर रहे थे। जहाज लंगर पर था और लोग गति में। इन सबके बीच हम इस पर सवार हो गए और भीतर एक महिला क्रू से पूछ ही दिए कि टॉयलेट किधर है। मैं जब भी किसी नई व अच्छी जगह को देखता हूँ तो सबसे पहले उसके टॉयलेट को देखता हूँ। यही काम 2008 की पहली हवाई यात्रा में मुंबई जाते किया था... लड़की ने धीरे से पूछा - 'आपका मतलब वाशरूम'। मैंने कहाँ हाँ। वो उद्धर है। यह एक बंगाली टोन थी। खैर बहुत अच्छी हालात तो नहीं थी लेकिन वाशरूम से लौटकर मेरे भीतर जहाज पर बैठने का आत्मविश्वास आ गया। अकसर वाशरूम जाने से भय निकल जाता है और मैं भय मुक्त अथवा कहें कि भारमुक्त हो जाता हूँ। तो भारमुक्त होकर मैं जहाज पर सवार हुआ और जब सुरक्षा संबंधित सभी जाँच संपन्न हो गई तो मेरे बगल से गुजरती एक महिला क्रू से मैंने पूछा कि एस.एस. महाराजा अब चलती है कि नहीं। उसने बताया कि वह तो बंद हो गई है और बंद क्या हो गई, पुरखों के प्रतिकार की सुनामी में लंगर सहित बह गई। जब मैंने पूछा कि आप यों कविता बोल रहीं हैं, थोड़ा और भी इसे स्पष्ट कीजिए तो उसने बताया कि हुआ यह कि...

1891 में आए तूफान में लंगर डाला महाराजा जहाज समुद्र में डूब गया और जब सुबह के वक्त साऊथ पॉइंट के जेल में कैद कुछ महिलाओं ने उतराते हुए कुछ नाविकों को देखा तो अपनी साड़ियाँ खोलकर एक दूसरे में बाँधकर वे चट्टानों पर खड़ी हो गईं और एक दूसरे को सहारा देते समुद्र में डूबते कई नाविकों को बचा लिया। यह तूफान दीपावली के आसपास आया था जिसने पोर्ट ब्लेयर को उजाड़ दिया था। तो इस नाम से एक गीत ही चल पड़ा था - दिवाली में आया तूफान अंडमान सूना पड़ा...

और अब उसकी जगह हर्षवर्धन जैसे जहाज चलते है। तो महाराजा बंद हो गई। जाने क्यों जहाँ सब लोग जहाज से काटते पानी की तस्वीर उतारने में व्यस्त थे। मैं महाराजा से कतरते पानी में पुरखों की आवाज सुन रहा था। पत्नी व बच्चे भी परेशान थे कि मुझे अचानक क्या हो गई। पत्नी बार बार फोटो व पोज के बीच कैमरे को सँभाल रहीं थी जबकि मैं इस जहाज के माध्यम से पुरखों की बदनसीबी पर सोच रहा था। ...कैसे आए होंगे वे उस पशुवत महाराज जहाज में बैठकर। चाय नाश्ते की बात ही छोड़िए। पानीं भी मिला होगा कि नहीं। हम जहाँ अपनी आबाद बस्तियों में सुरक्षित होकर यहाँ सैर करने आए हैं वे दूसरों की बस्ती को आबाद करने सब कुछ बर्बाद करके आए थे। क्या सोच रहे होंगे जब पहली बार समुद्र को देखा होगा उन्होंने। क्या उनकी भी आँखों में ऐसा ही नीला समुद्र तैर रहा होगा या फिर काला पानी के जलजले में सब कुछ बह गया होगा। मैं पानी काटते जहाज को बार बार देख रहा था और सोच रहा था कि क्यों वे समुद्र को लाँघना नहीं चाह रहे थे। पानी जब जब चीख रहा था तो मुझे तब तब पुरखों की याद आ रही थी... बहुत मानवीय थे हमारे पुरखे! दर्द सहना उन्होंने समुद्र से ही सीखा था। इसलिए समुद्र को लाँघना उन्होंने वर्जित घोषित किया था। इन्हीं वर्जनाओं के बीच हमारी इस यात्रा का होना था और हम जो कुछ भी हो रहे थे वह पुरखों की यात्रा में बस पड़ाव हो रहे थे। पुरखे मुझे घेर रहे थे और मैं बीच बीच में तैरते हुए टापुओं में उलझा हुआ था।

हमारे इस जल मार्ग में जहाज के दोनों ओर तैरते हुए छोटे छोटे द्वीप समूह थे जो समुद्र के ऊपर हरी भरी डोंगी की तरह तैर रहे थे। समुद्र में लहरें बहुत नहीं थी जिस कारण लग रहा था कि यह हमारी यात्रा से बहुत असंतुष्ट नहीं है। पानी को काटता हुआ जहाज अपने अनोखे अंदाज में सामंती शोषण का जीता जागता नमूना लग रहा था और इसके काटने के अंदाज से जिस तरह से पानी से फेचकुर निकल रहा था उससे मुझे सहसा अपने पुरखों के समुद्र पार न जाने के कारण का उत्तर मिल रहा था। यह भी लगा वे कितने संवेदनशील थे कि पानी के दर्द को वे बखूबी समझते थे जबकि हमारे अँग्रेज आदमी के दर्द को भी नहीं समझ पा रहे थे। उनके लिए हमारे पुरखे आरा मशीन पर चढ़ी हुई लकड़ी मात्र थे जिसे वे अपनी आरा मशीन से जब तब काटते रहने के लिए बेचैन रहते। तो मक्रूज जहाज पर यात्रा करते चैथम सॉ मिल का भी रहस्य खुला जो अभी तक सारा साहित्य पढ़ने के बाद भी नहीं खुल पाया था। यह भी समझ में आया की अँग्रेज जब यहाँ अंडमान में पहुँचे तब सबसे पहले सॉ मिल की स्थापना क्यों किए जो आज भी चैथम में पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। अजीब बात है कि आरा मशीन उनके लिए साम्राज्यवादी सत्ता की प्रतीक थी जहाँ से आदमी चीरने का उन्होंने लगभग डेढ़ सौ साल अभ्यास किया।

तो खैर मैं मक्रूज से हैवलॉक जा रहा था और समुद्र पर तैरते हुए इसके नीले पारदर्शी जल में इसकी गहराई का अहसास कर रहा था। यूँ तो यह बोल नहीं सकता था लेकिन क्या यह जरूरी नहीं कि जो चुप हो उसकी हलचल को ठीक से समझा जाय। यह समझने की कोशिश की जाय कि जो सतत लहरों में रहते हैं उन्हें अभिव्यक्ति की कितनी बेचैनी होती है। ठीक एक नागरिक लेखक की तरह। बाहर से शांत लेकिन भीतर जैसे धौंकनी चल रही हो। तो फिर इतने विशाल समुद्र में ये छोटे छोटे मानव रहित टापू क्या कर रहे हैं। क्या इसलिए इनको समुद्र ने छोड़ रखा है कि गाहे व गाहे उसके जीव जंतु इन पर आराम से धूप सेंक सकें। या इसलिए कि यह समुद्री जीवों के लिए एक ठोस थाली का काम करे जिसमें जीव जंतु आकर खा सकें। लगता तो ऐसा ही है अन्यथा मैंग्रोव के इतने विशाल क्षेत्र में विकसित होने का कोई कारण भी तो नहीं है जहाँ समुद्र की अनेक जीवित प्रजातियाँ अपना पेट भरती हैं और पर्यावरण को कैल्सियम के असंतुलन से बचाती हैं। मैरीन लाइफ यानि सामुद्रिक जीवन की यह नैसर्गिक विशालता बगैर समुद्र के गहराई के संभव नहीं है।

तो मैं जहाज से यह सब सोच रहा था कि तभी कैप्टन ने आवाज लगाई कि हम जल्दी ही हैवलॉक में उतरेंगे। मैं भी चैतन्य हुआ और यह जानकर अच्छा लगा कि इस पानी के जहाज में भी हवाई जहाज वाला सिस्टम है। बस एयर होस्टेज की जगह वाटर होस्टेज हैं जिनका सुरक्षा के अलावा और कोई कंसर्न नहीं है। हो भी क्यों संभव है इन्हें वे सुविधाएँ भी तो नहीं हैं। दूसरी बात यह कि पानी पर चलते चलते हवा की कल्पनाशीलता और जमीन की व्यवहारिकता दोनों से आदमी कट भी तो जाता हैं।

हवा में हैवलॉक !

खैर, अब तो हैवलॉक आ ही गया। बंदरगाह की जेट्टी पर हमें वहाँ के टूरिस्ट प्रबंधक बहादुर ने रिसीव किया और हम गोल गोल झाड़ी से बने एक सुंदर कॉटेज में पहुँच गए। वाव! कितना सुंदर है। कॉटेज से विलेज की याद आने लगी जिसमें अब सभ्यता की सभी बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। गजब का सुंदर नजारा। नाम 'ब्लू सी रिसोर्ट'। बिल्कुल सामने विजय नगर बीच का दहाड़ता हुआ समुद्र। तो रिसोर्ट माने गाँव की पारंपरिक बनावट के दायरे में आधुनिक भोग व उपभोग के सभी साजो सामान। यहाँ के सभी कॉटेज इसी तरह के बने दिखाई दिए। साफ व व्यवस्थित। कैसे बनाए जाते हैं के जवाब में इन्होंने बताया कि यह असल में आदिवासी लुक देने का परिणाम है। यद्यपि यहाँ आदिवासी नहीं हैं। उन्होंने यह भी बताया कि चूँकि अँग्रेजों ने काला पानी के साथ इस समूचे इलाके को आदिवासी परिसर बना डाला था जहाँ तथाकथित असभ्य व हिंसक लोग रहते हैं इसलिए यहाँ आरंभ में जो भी पर्यटक आए वे सब जगह आदिवासी ही खोजते रहे। तो यह कॉटेज भी उसी आदिवासी लुक का मॉडर्न रूप है जिसमें लुक झोपड़ी का है लेकिन सुविधाएँ सब आधुनिक हैं। जब मैंने इसको पत्तों से घिरे होने की बात की तरफ इशारा किया तब उन्होंने बताया कि असल में 'गोल पत्ता' का यह बनाया जाता है जो बहुत सॉफ्ट लेकिन मजबूत होता है। यह हल्का होने के साथ काफी मजबूत भी होता है। इसलिए इसको छत व दीवार बनाने के काम में लाया जाता है। बहुत पतली दीवारों को इससे छोप दिया जाता है। टिन की छत को इससे ढक कर इसे मजबूत व सुरक्षित बनाया जाता है। यहीं तकनीक आदिवासी लोग भी अपनाते थे। बस उनके पास सुख व आनंद के साजो सामन नहीं थे। मुझे यहाँ सभी जगह दिखने वाले ऐसे ही कॉटेज देखकर बहुत अच्छा लगा और इसके साथ ही जब उन्होंने हमारे अगले दिन के कार्यक्रम की जानकारी दी जिसमें काला पत्थर, विजय नगर, गोविंद नगर के साथ राधानगर बीच तो था ही आसपास का एलफंट बिच भी शामिल था जहाँ स्कूबा डाइविंग, स्नोर्कलिंग व ग्लास बोटिंग सुंदर नजारा देखना था जिसमें मूँगा पहाड़ के साथ समुद्री जीवन के विविध पहलुओं को कारीब से देखना भी शामिल था। इन सभी की जानकारी लेने के बाद मैंने सहसा उनसे हैवलॉक में किसी तालाब के होने की जानकारी की बात कही तो उन्होंने इनकार कर दिया। मुझे सुकवि लीलाधर मंडलोई द्वारा 'काला पानी' नामक पुस्तक में वर्णित कथा की याद आई और मैंने उनसे बार बार कहा की यहाँ एक तालाब होना चाहिए जहाँ पारियाँ स्नान करने आती थीं। लेकिन वह बार बार किसी तालाब के अस्तित्व को ही नकारता रहा। दिक्कत इस समय यहीं थी कि मैं परियों के तालाब को खोज रहा था और वह समुद्र में खड़ा होकर तालाब के बारे में सोचने की मेरी मूर्खता पर परेशां हो रहा था। उसकी बात में यह ध्वनि शामिल थी कि मैं भी एक अजीब आदमी हूँ कि जहाँ हैवलॉक में लोग समुद्र देखने आते हैं मैं तालाब खोज रहा हूँ। पास जब विशाल कुआँ हो फिर भी प्यास बाकी हो। उसी समय मैंने कॉटेज के कई कर्मचारियों से उस तालाब के बारे में जानना चाहा लेकिन किसी ने नहीं बताया। मुझे मंडलोई जी के किस्से में इतनी आस्था थी कि मुझे बार बार लगे कि यहाँ तालाब तो होना ही चाहिए या कि मेरे किस्से के लिए उसे होना ही होगा। लेकिन जिसे होना ही होगा उसका न होना बहुत घातक होता है यह बोध तब कहाँ था। मुझे बार बार लगे कि सब झूठ बोल रहे हैं और जब हम काला पत्थर की तरफ निकले तो वहाँ भी रास्ते में मिलने वाले कइयों को हमने पूछा लेकिन सब बेकार। होटल, दुकानदार, मूँगफली वाले, जो भी मिले सबसे यही सवाल लेकिन जवाब कहीं नहीं। अलबत्ता खोज की इस प्रक्रिया में काला पत्थर बीच के बारे में यह पता चला कि जिसका नामकरण वहाँ काले काले पत्थरों के कारण पड़ा। वहाँ की रेत भी गहरी भूरी है इस कारण भी यह नाम पड़ा। और जहाँ लोग इन गहरे काले घुमावदार पत्थरों पर फोटो खिंचवा रहे थे मैं तालाब को खोजने में लगा था। इसी प्रकार हम पास के ही विजय नगर व गोविंद नगर तट पर भी गए और लोगों को यह सुनते व कहते सुनकर अच्छा लगा की इनके नाम सब देवताओं के नाम पर है जिसका मतलब की कोई न कोई पुरखा अँग्रेजों और बाद में जापानी सेना की बर्बरता से बचकर मरते खपते यहाँ तक पहुँचा होगा और जो भी तट मिला उसका नाम अपने हिंदुस्तानी देवता के नाम पर रख दिया होगा। संभव है कि जापानी बर्बरता के शिकार कुछ नागरिक जिन्हें 1945 में समुद्र में बाँधकर छोड़ दिया गया था उनमें से ही कोई बचा हो जिसने तट के नाम अपने भारतीय देवताओं के नाम पर रख दिया हो। यह भी कम से कम इतना तो स्पष्ट है कि अँग्रेजों की पहुँच यहाँ तक नहीं थी अन्यथा इनके नाम भी हेरिएट, कार्बिन, रॉस जैसे ही होते। कहा भी जाता है कि जापान के द्वितीय विश्व युद्ध में पराजय के बाद जब चीफ कमिश्नर पैटरसन के नेतृत्व में 10 अगस्त 1945 को हिंदुस्तानी लोगों का एक बड़ा जत्था दिलावर जहाज से पोर्टब्लेयर भेजा गया ताकि इसे जापानी आतंक से मुक्त कर नए सिरे से बसाया जा सके। तब उसके पहुँचते ही एक खबर आई थी कि लगभग 700 हिंदुस्तानियों को जापानी सेना ने बंदूक की नोक पर काम के बहाने हैवलॉक के पास के समुद्र में उतार दिया था। असल में घटते खाद्यान के चलते यहाँ मजदूरी कर रहे हिंदुस्तानियों से मुक्ति की कोशिश में जापानियों ने एक गंदी चाल चली जिसका दुखद पक्ष धोखे से रोजगार के नाम पर बहला फुसलाकर हिंदुस्तानियों को जहाज में बैठा कर धोखे से बीच समुद्र में डाल देना था। इसमें जो कुछ तैरना जानते थे और जिन्हें भाग्य ने भी सँभाला वे राधा कृष्ण करते हैवलॉक तक पहुँच गए और इन्हीं लोगों से कालांतर में यह द्वीप आबाद हुआ। लेकिन इन सब के बीच फिर वही सवाल कि वह तालाब कहाँ है जिसमें परियाँ नहाती थीं।

इन्हीं सवालों के साथ जब सुबह ही राधानगर तट की तरफ चला तो नजारा कुछ और था। गाड़ी में बैठते ही फिर ड्राइवर से पूछा कि तालाब कहाँ है। इस पर पत्नी ने झल्लाकर कहा की रात भर तालाब तालाब चिल्लाते रहे और अभी तक मन नहीं भरा। आखिर तालाब का रहस्य क्या है जो आप खोज रहे हैं। तब मैंने पत्नी को वह किस्सा सुनाया जिसे आप भी सुनें... और जाहिर बात है यही किस्सा इस द्वीप का किस्सा है जिसे मंडलोई जी ने दर्ज किया है -

...परी टापू के नाम से मशहूर इस जगह के बारे में बताया जाता है कि रात के गहन अंधकार में यहाँ के एक सरोवर में परियाँ स्वर्ग लोक से उतरतीं और स्नान करतीं। इसी में एक राजकुमारी भी थी जिसके उतरते ही पूरा हैवलॉक प्रकाशित हो जाता। एक बार वह अकेले उतरी और पंख रखकर जैसे ही तालाब में नहाने लगी भयानक तूफान आ गया, जब वह निकली तो वहाँ एक सुंदर युवक को देखकर स्तब्ध रह गई जो बेहोश पड़ा था। जब युवक को होश आया तब उसने बताया कि वह पूर्वी देश का एक राजकुमार है और भ्रमण पर निकला है लेकिन भयानक तूफान ने उसकी जहाज को डुबो दिया है। यह सुनकर राजकुमारी को दया आ गई और रोज आकर उससे मिलने के आश्वासन के साथ वह सुबह होते स्वर्ग चली गई। तब से वह रोज ही धरती पर आती और राजकुमार से मिलती। एक दिन राजकुमार को दुखी देखकर उसने पूछा तो पता चला कि वह अपने घर जाना चाह रहा है और इसके लिए परी का पंख चाहता है, इस आश्वासन के साथ कि वह जल्दी ही लौट आएगा। राजकुमारी ने उसे पंख दे दिया लेकिन वह जाने के बाद आज तक नहीं लौटा। वह कुमारी अपने कुमार की प्रतीक्षा आज भी कर रही है...

कथा के बाद निष्कर्ष यह कि इस कहानी के तालाब का तो पता नहीं। संभव है राधानगर बीच ही वह मिलन स्थल रहा हो। लेकिन यह तो तय है कि इस कथा से यह निष्कर्ष निकलता है कि भटके हुए जहाजों से अटके हुए यात्रियों से ही यह जगह आबाद हुई है। यूँ सभ्यताओं का विकास भी तो समुद्र द्वारा प्रदत्त संसाधनों से हुआ है।

यह सुनते ही बेटी ने कहा... वो देखिए आ गया तालाब। मैंने कहा यह तो समुद्र है तो बेटी ने कहा यही है आपका तालाब। और हाँ जिस कथा को आप तालाब में खोज रहे हैं वह तो इसी राधानगर बीच की कथा है। तो क्या आ गया राधानगर बीच। बेटी ने कहा - यह देखिए सामने खड़ा है। उधर पश्चिम की ओर जिधर सूर्य डूबता है। ओह तो इसीलिए यहाँ का सूर्यास्त सुहाना होता है।

वाह। क्या समुद्र है यहाँ। लहर ऐसी जैसे किसी को किनारे पर छूने के लिए मचल रहा हो। याद आए जायसी - 'सरवर रूप विमोहा हिये हिलोर करेइ / पाय छुअइ मकु पावौं तेहि मिस लहरें देइ।' लेकिन जाहिर है यहाँ न तो कोई पद्मावती थी और न ही मानसरोवर! पानी ऐसा की पाताल भी साफ दिखाई दे। आकाश पाताल मिलकर एक हो। "आकाश बदल कर बना मही"। निराला याद आए। लगता है समुद्र ने अनंत प्रकार के कपड़े पहन रखे हैं और अपनी लहरों में प्रसन्न भाव से एक एक कपड़े उतार रहा हो। बिल्कुल मस्त मौला की तरह। यह भी लगता है कि अपने लिए कितने दिव्य व स्वच्छ स्थान का चुनाव किया है इसने आराम करने के लिए। थक गया हो मानों और अपने ही स्वच्छ बालू के कपड़े बिछाकर मानो आराम कर रहा हो। तट पर भारी भीड़। लोग एक दूसरे से गलबहियाँ करते हुए। चुम्मा चाटी करते। हाथ पकड़ते। पानी में लहरों से खेलते। आगे जाते फिर पीछे भागते। चढ़ती लहरों में आकाश कुसुम खिलते लेकिन लहरे जब उतरती हैं तो लगता जैसे नीचे से जमीं खिसक रही हो और शीघ्र ही पाताल लोक में पहुँच जाएँगे। यह भी जैसे समुद्र पाँव सहला कर यात्रा की थकान मिटा रहा हो। चढ़ती लहरों में पाव के नीचे से सरसराती हुई सरकती रेत जिससे लग रहा हो समुद्र धीरे धीरे गुदगुदा रहा है और पूछ रहा है मजा आ रहा है न। यहाँ का तट बहुत साफ विशाल व प्रशस्त दिखा। कुछ कुछ गोवा के मजोर्डा बीच की तरह लेकिन वहाँ वह प्रशस्तता कहाँ जो यहाँ मौजूद है। एक ऐसा ही तट त्रिवेंद्रम में कोवलम नाम से है लेकिन एक तो वहाँ गंदगी है दूसरे वहाँ का पानी स्वच्छ नहीं है। नीले पानी पर एक तरफ सुबह के सूर्य की हल्की पीली रोशनी तो उसके प्रकाश में तट के हरे हरे वृक्षों के लहराती परछाइयाँ। किसी सुनहरे स्वर्गीय अनुभव से कम नहीं। इस तट को किनारों ने तीन तरफ से घेर रखा है मानों तट अपनी भुजाएँ फैलाए समुद्र के आलिंगन व स्वागत के लिए बेकरार है। प्रकृति ने इस जगह को बहुत सुंदर ढंग से तराशा है और इसकी मादकता में जो मिठास है उससे निश्चित ही किसी सुंदर परी के नहाने की घटना पर विश्वास हो जाता है। तट पर चारों ओर हरियाली। नारियल व सुपाड़ी के पेड़ों से घिरे तट पर मानों मनुष्यता ही पुलकित भाव से झूम रही ही और कह रही है कि इस तट पर जो आया वह नारियल की नामकीनी मिठास के साथ ही गया। कृतज्ञता व आस्वाद की आधुनिकता लिए एक साथ। नारियल के लहराते पेड़ों की छाया में काया जहाँ निखर उठती वहीं दूर देश से चिपकी चली आई माया से भी विश्रांति मिलती। समुद्र एक ब्रह्म है जिसके सामने आते ही माया मुक्त हो जाती है। यहाँ सब कुछ तैरता हुआ नजर आता है और जो तैरता है उसमें छुपाने के लिए कुछ नहीं होता। यूँ समुद्र हमारी गहरी रहस्यात्मकता को आमलवक स्पष्ट करता है यद्यपि कि यह खुद में एक सुखद रहस्य है।

तो परीलोक से भरे इस तट पर हमने भी उड़ान भरी। कुछ देर। लहरों को रोकने में खुद ही लहर हो गए। गति में आने व जाने लगे। हु, आहा, वाह आदि शब्द तो थे ही अपनी थोड़ी सी उछल कूद में ही समूचे समुद्र को नाप रहे थे। हमारे सामने आते हिलकोरों में लगता कोई विशाल मगरमच्छ हमारे सामने आ रहा है और बिल्कुल करीब आकर मानों अपना फेनिल द्रव्य हमारे ऊपर उड़ेल दे रहा हो। क्या बात है। दूधिया रंग का फेन आता और हमें वक्ष तक स्पर्श कर लौट जाता फिर आने के आश्वासन के साथ। इस तरह एक सामुद्रिक कोलाहल के साथ उस क्षण हम भी मरीन लाइफ के हिस्से हो गए और हमारा महज स्पर्श करने का सारा धैर्य टूट गया और हम उस संपूर्ण आवर्त में खो गए और जब बाहर निकले तो एक प्रशस्त समुद्र हमारे भीतर समाया हुआ था जिसमे कई तरह के समुद्री जीव जंतु तैर रहे थे। समुद्र हमें प्रेम करना सिखाता है और यह भी कि लहरों के बीच प्रेम का बंधन कैसे खूबसूरत व प्रगाढ़ होता है। हम समुद्र से प्रेम करने गए और खुद ही प्रेम हो गए। जितना उसकी नीली आँखों में खोते गए उतना ही अपने में लीन हो गए और तब वहीं हुआ जिसे होना था। अपने संबंधों में और लवलीन हो गए!

अब हमें जल्दी ही स्कूबा डाइविंग के लिए जाना था जिसके लिए सामने का एलिफैंट टापू सबसे उपयुक्त था। तीन तरीके थे अपने कल्पना के जीव जंतुओं को समुद्र के भीतर देखने के। स्कूबा डाइविंग। स्नोर कलिंग और शीशा बोट। स्कूबा डाइविंग इसमें सबसे मजेदार होता है जिसमें समुद्र के भीतर के मूँगा पहाड़ (कोरल रीफ) को देखा जा सकता है। तरह तरह की मछलियाँ रंग बिरंगे समुद्री जीव यहाँ दिखाई देते हैं जो आपसे डरते नहीं। आपका मस्ती से इतराते हुए स्वागत करते हैं। वे बताते हैं कि समुद्र उनके लिए कितनी सुरक्षित जगह है कम से कम इस मामले में तो ज्यादे आकर्षक व उत्तेजक है कि वहाँ किसी प्रकार की संकीर्णता के लिए कोई जगह नहीं है। सब ओर एक अनोखा अंदाज और इसी अंदाज का परावर्तित रूप सतह पर उठने वाली लहरें है। मने यह कि लहरों की चंचलता समुद्र के भीतरी जीवन की गतिशीलता का परिणाम है। हममें से जिसके पास भी हाहाकारी लहरें हैं यकीन मानिए उसका भीतरी कोना भी काफी गतिशील है। यह बात और है कि कई बार भीतरी गतिशीलता को न सँभाल पाने के कारण बाहर की लहरें बेकाबू हो जाती हैं और कई बार आत्मघाती।

लेकिन सुनता कौन है। जरूरी नहीं कि जो समुद्र के पास गया हो वह इसको सीखकर ही आया हो। जेलर बेरी की संतानें तो आज भी हैं और आगे भी रहेंगी जिन्होंने सिवाय चोट पहुँचाने के, कभी कुछ नहीं सीखा। समुद्र के पास बहुत नमक है। लेकिन हमारे घाव पर वह नमक नहीं डालता। वह हमारे घाव को धो डालता है। जिनके पास चुटकी भर नमक है वे जमाने से जमाने के घाव पर नमक छिड़क रहे हैं लेकिन देखिए न समुद्र कितना विराट हृदय है कि वह हमारे घाव अपने इसी नमक से धोता है। जो भरे दिल वाले होते हैं वे अपने संसाधनों का दुरुपयोग नहीं करते। ये तो छिछले लोग होते हैं जो अपनी चुटकी भर संपन्नता में औरों को विपन्न करने की कोशिश में लगे रहते हैं। मैंने अपने इस छोटे से जीवन में कई विपन्न छिछोरों को दूसरों की संपन्न सदाशयता पर नमक छिड़कते देखा है।

यूँ कह सकते हैं कि समुद्र एक नमक है जो इससे मिलने वाले कष्ट को खुद ही धारण करता है और अपनी लहरों की ताजगी से हमारी जन्म भर की थकान को मिटा डालता है। नमक का हक कैसे अदा किया जाय, यह कोई समुद्र से सीखे!

विरासत में बाराटाँग!

समुद्र के भीतर यदि नमक है तो इसके बाहर अद्वितीय मैंग्रोव, जिसकी चर्चा मैंने बनारस से चलने के पहले ही मित्रों से सुनी थी। हैवलॉक से लौटने के बाद जब सुबह सुबह बाराटाँग जाने की तैयारी कर रहा था तो सबसे पहला सवाल तो यही मन में आया कि यह बाराटाँग है क्या चीज! यह भी कि इस जिस जगह पर हमें जाने के लिए अंडमान ग्रैंड ट्रंक रोड से उतर की तरफ जाना है उसका भूगोल क्या कहता है। हमें यह भी बताया गया था कि बाराटाँग की इस 100 किलोमीटर की दूरी तय करने में लगभग आधा हिस्सा घना जंगल है जिसमें जारवा को देख पाने की संभावना बनती है। हमारे ड्राइवर मोहन ने जारवा क्षेत्र के बारे में बहुत कुछ बताते रास्ते में ही कई तरह की हिदायत दे रखी थी जिससे यह लग रहा था कि इस जारवा जंगल को लेकर सरकार बहुत गंभीर है। जारवा का नाम आते ही एक ऐसे समुदाय की छवि उभरती है जो नंग धड़ंग है और अपनी रंग आकृति में पूर्णतः काला। हमें यह बताया गया था कि ये हमेशा नंगे रहते हैं। कच्चा मांस खाते हैं। इधर के लोगों को देखकर तीर धनुष से हमला करते हैं और रस्ते में आपके पास जो कुछ भी है उसे छीन लेते हैं। यानी पूरे जंगली और विकसित सभ्यता से कोसों दूर! हमने रास्ते में जब अपने चालक से ये बातें बताई तो वह कुछ नहीं बोला। कहा कि पहले कभी होता था लेकिन अब नहीं है। लेकिन जारवा की जो छवि यात्रा से ठीक पहले गढ़ी गई थी, वह एक औपनिवेशिक छवि थी जिससे मुक्त होना हमारे लिए कठिन था और वह भी तब जब 50 किलोमीटर चलने के बाद जब हम जरखातांग पहुँचकर सैकड़ों गाड़ियों की पंक्तिबद्ध भीड़ देखते हैं और वन विभाग के द्वारा माइक पर लगातार चेतावनीपूर्ण संदेश प्रसारित किए जा रहे थे और यह भी बताया जा रहा था कि जारवा के 50 किमी के क्षेत्र से गुजरते आप सभी यात्री पूरी तरह पुलिस सुरक्षा में रहेंगे और सुरक्षा के सभी निर्देशों का कड़ाई से पालन करेंगे। मैं गाड़ी से उतरकर जरखाटंग में इधर उधर भटक रहा था और कई लोगों से कई तरह अकारण सकारण बाते कर रहा था लेकिन लगभग डेढ़ घंटे के इस सुरक्षित यात्रा की चेतावनी में बार बार यही सोच रहा था कि अगर पेशाब लग गई तो। तो क्या उतरने की मनाही होगी और अगर उतर गया तो क्या वे लोग तीर से मार डालेंगे। यकीन मानिए परिवार के साथ संपन्न होती इस यात्रा में सबसे बड़ा सवाल यही था और इसके जवाब के फलस्वरूप 30 मिनट में तीन बार लघुशंका की इस प्रक्रिया से गुजरा और जब चौथी बार चलने के पहले एक बार फिर उद्यत हुआ तो पत्नी ने मुस्कुराकर कहा - ऐसी बेचैनी तो आप को इंटरव्यू के ठीक पहले भी नहीं रही होगी! पता नहीं कैसे मेरे भीतरी संघर्ष को वे समझ गई थी और धीरे से कहा - डरने की कोई बात नहीं है। वे आपके इंतजार में बैठे नहीं होंगे! मैं यह सुनने के बाद थोड़ा लजाते व थोड़ा मुस्कुराते हुए गाड़ी में बैठ गया और इधर उधर झाँकते फिर उसी सवाल में खो गया - बाराटाँग व जारवा के बीच क्या रिश्ता है।

जरखातांग में सुबह की पहली चाय पीते तमिल दुकानदार मूर्ति से मैंने यहीं पूछा कि बारातांग मने क्या होता है। उनकी दुकान का नाम देखकर मुझे स्वयं उनके बारे में भी जानने की इच्छा हुई। बाराटाँग के बारे में तो वे नहीं बता पाए किंतु यह अवश्य बताया कि जरखाटंग से ही जारवा के जंगल शुरू हो जाते हैं लेकिन खुद को उन्होंने तमिल बताया और यह भी कि यहाँ तमिल व बंगाली ज्यादे मिलते हैं क्योंकि बंगाल के विभाजन व रंगून से कैदियों को डिपोर्ट करते समय अंडमान में सबसे ज्यादे ये ही लोगों को भेज गया था 1857 के बाद। तो यहाँ कि डंडी बस्तियों में दंड पाए लोगों में ज्यादे लोग बंगाली व तमिल ही थे जिन्होंने आगे चलकर बस्तियाँ बसाईं। आज भी यहाँ के पर्यटन उद्योग में इनकी संख्या ज्यादे है। जब उनसे मैंने जरखातंग व जारवा के बीच किसी संबंध की संभावना पर बात की तब वे मुस्कुराकर इतना ही बोले कि बस यही नाम चला आ रहा है। तो जारवा व जरखा के बीच अभी संबंध बताना मुश्किल है। यही सवाल जब वहाँ मिले एक फॉरेस्ट गार्ड से पूछा तो वह भी टाल गया।

खैर इन्हीं अनुत्तरित सवालों के बीच यहाँ से यात्रा शुरू हुई और पूरे रास्ते बस सभी के मन में नंग धड़ंग जारवा को देखने की इच्छा थी। पर्यटकों में भी जरखाटंग में इसी बात को लेकर चर्चा थी कि यदि वे नहीं दिखे तो समझो पैसा डाँड़। तो नंग धड़ंग जारवा हमारी यात्रा में कुछ इस तरह शामिल थे की हम सभ्य लोग उन असभ्य को कैसे देखें और यह भी हम भरे तुपे ढके लोग उनकी नग्नता को कितना निकट से देखें। जैसे हमने अपने को नंगा देखा ही नहीं है और नंगा होकर हम कैसे दीखते हैं इसे देखने के लिए इतनी दूर हमें आना ही होगा! मानों जारवा मनुष्य नहीं हैं। वे नग्नता की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं।

जारवा लेकिन हमारे जैसे हैं !

असल में पश्चिमी तट पर घनी पहाड़ियों से घिरे जंगल में यहाँ की नीग्रो मूल की चार प्रमुख जनजातियों में (अन्य तीन हैं - ग्रेट अंडमानी, आंगी, सेंटिनल) जारवा जाति सदियों से रहती आई है। मुख्यतः इनका क्षेत्र दक्षिणी अंडमान था जहाँ ये आराम से जीवन जीते रहे लेकिन 1857 के बाद जब अँग्रेजों ने दंडी बस्तियों के निर्माण का कार्य आरंभ किया तब इनसे टकराव आम हो गया क्योंकि कैदी बस्तियों के लिए जंगल को काटना जरूरी था और जारवा इसके लिए तैयार नहीं थे क्योंकि यह उनके पुरखे पुलुगा की जमीन थी। बस अँग्रेजों ने इन्हें दक्षिणी अंडमान से खदेड़ना शरू कर दिया जिसके फलस्वरूप वे मध्य अंडमान के पश्चिमी किनारे पर फैल गए। स्थान तो बदला लेकिन साथ में हिंसा व नफरत का बोध भी लेते गए जिस कारण से वे मुख्य धारा के लोगों के प्रति अनुदार देखे जाते हैं। बाद में शासन ने इस पूरे वन क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया और इसी के साथ उनके नरभक्षी व हिंसक चरित्र जी एक से बढ़कर एक कहानियाँ दर्ज होने लगीं। आज भी आदिवासी समाज में शासन के प्रति जो नफरत है उसमें अँग्रेज अफसरों की इस जबरिया नीति का बहुत असर है।

खैर हमें आज इसी क्षेत्र से जाना था जिसमें नंगे जारवा की एक झलक पानी थी जो कि यात्रा का सबसे उत्तेजक मूड होना था, जिसके न होने से बाराटाँग का मजा भी किरकिरा होना था और इसी के साथ लायिम स्टोन गुफा और मैंग्रोव्स के घने जंगलों की यात्रा का भी बुरा हश्र होना था। मैंने यहाँ जिससे भी बात किया सभी ने जारवा दर्शन की अभिलषित इच्छा प्रकट की जबकि इस यात्रा में अभी आगे भी बहुत कुछ होना था।

गाड़ी में बैठते हमारी नजर सड़क के दोनों ओर जारवा को खोज रही थी मानों जंगल में हरे भरे वृक्षों का कोई अस्तित्व ही न हो। सब जगह काले काले जारवा ही बसे हों जो फिलहाल कहीं न हों। इस 'देह दरसन' को भी यात्रियों के भाग्य से जोड़ दिया गया था और भाग्य है तो सौभाग्य का होना तो था ही। नंगों के प्रति हमसफर नंगों का इतना आकर्षण देखकर मैं चकित था और यह सोच ही रहा था कि इस मानसिकता को बनाए रखने में जितनी भूमिका अँग्रेजों की थी उससे कहीं अधिक भूमिका हम हिंदुस्तानियों द्वारा इसे बचाए रहने की थी। वे तो चले गए लेकिन एक हिंसक छवि छोड़कर गए। इसका दुष्परिणाम यह कि जारवा से ज्यादे जारवा की छवि यहाँ विकती है। यह सब सोच ही रहा था कि सड़क किनारे दो जारवा को देखकर मेरे बेटे आगत ने उछलकर कहा - ओ देखिए जारवा! मेरा भी ध्यान गया तो देखा नेकर पहने हाथ में तीर व धनुष लिए दो जारवा सड़क के किनारे खड़े थे व हर गाड़ी का मुस्कुराकर अभिवादन कर रहे थे। मैं क्षण भर इन्हें ऊपर से नीचे तक देखा और मन ही मन सोचा कि ये नंगे तो नहीं हैं। मैंने ड्राइवर मोहन से पूछा कि, चूँकि इस इलाके में वे अकसर आते हैं, क्या इसके पहले भी उन्होंने इन्हें इस तरह देखा है? ड्राइवर ने एकदम मना किया और फोटो न खींचने की हिदायत के साथ स्पष्ट किया कि आप भाग्यशाली हैं कि ये दिख गए। उसने यह भी बताया कि पुलिस की प्रेरणा से इनमें से कुछ ने अब नेकर पहनना शुरू कर दिया है लेकिन हिंसक स्वभाव में कमी नहीं आई है। वे हमसे बहुत डरते हैं इसलिए आत्मरक्षा के फलस्वरूप में वे हिंसक हो उठते हैं।

इतना ही नहीं उसने यह भी बताया कि पिछले दस वर्ष से इन पर कुछ लिखने बोलने की मनाही है क्योंकि सरकार नहीं चाहती कि लोग सुनी सुनाई बातों के आधार पर अथवा उनसे मिलकर कोई ऐसी खबर छापें जिससे उनके अविकसित होने पर शासन को लज्जित होना पड़े। यानि वे अब पूरी तरह प्रोटेक्टेड हैं!

तो जारवा मैंने देख ही लिए और पर्यटकों के उत्साह को देखकर सोचने लगा कि यदि कोई जारवा जरखाटंग में किसी सड़क किनारे एक कुटिया बना ले और अपने दिव्य दर्शन को शुल्क के साथ जनसुलभ करा दे तो जो पैसे आएँगे, यानि की बहुत ही आएँगे, सभी बचे जारवा का ठीक से पोषण तो होगा ही, बचे पैसे से पूरे इलाके का विकास भी हो सकेगा। जिस तरह से यात्री जारवा के प्रति दीवाने दिखे उससे तो यही लगता है हालाँकि यह न तो संभव है न ही होना चाहिए। अमानवीय व अव्यवहारिक तो यह है ही।

खैर इस दिव्य दर्शन के बाद हम बाराटाँग में दाखिल हुए और कार सहित एक पानी के जहाज में घुस गए। इसे कहते हैं 'मिडिल स्ट्रैट'। अरे ये क्या। बगल में दो बस भी सशरीर पानी के जहाज में सवार हैं। धत तेरे की। तो क्या यहाँ समुद्र में पुल नहीं है जिससे होकर यात्री आगे रंगत, माया बंदर व दिग्गीपुर तक जाएँ। यानी जिसे अंडमान की सबसे ऊँची चोटी "सैडल पीक" तक जाना हो वह भी इसी जहाज से इस समुद्र को पार करेगा। वाह भाई वाह! लोगों ने बताया कि पिछले 30 साल से केवल सर्वे हो रहा है और परिणाम वैसे ही जैसे अपने काशी का है। सड़कों का सर्वेक्षण और कचड़ा निस्तारण प्लांट का अन्वीक्षण! केवल सर्वे। सर्वे भवंतु सुखिनः के वैदिक संदेश के नाम पर। आखिर इसमें भी तो सर्वे लगा ही है! इससे अच्छे तो अँग्रेज ही थे जिन्होंने हुगली पर विशाल पुल का निर्माण कर दिया जबकि हम लगभग उतनी ही चौड़ाई के समुद्र में यह जरूरी व अनिवार्य काम नहीं कर पाए।

खैर इसी धत तेरे की आवाज के साथ हम यहाँ की एक जेट्टी से 'लाइम स्टोन' गुफा की तरफ निकल पड़े। इस बोट की चाल तो देखते ही बनती थी जिसमे लगभग आधे घंटे की दूरी को तय करते समय चारों तरफ मैंग्रोव्स के विशाल पेड़ दिखाई दे रहे थे। ये मैंग्रोव्स हमें कल मुंडा पहाड़ के चिड़िया टापू पर भी दिखाई दिए थे ठीक विशाल काय पड़क पेड़ के बगल में, पूरी तरह जंगली महुआ के सुगंध से सुवासित। तो मैंग्रोव्स में सुगंध भी होती है। जी हाँ। धरती की एक विचित्र बनावट लिए ये समुद्र के पानी की सतह पर उगते हैं और धीरे धीरे एक विशाल क्षेत्र में फैल जाते हैं। जड़ से शाखा और फिर जड़ के रूप में फैलते जाने की अद्भुत कला में माहिर ये मैंग्रोव्स अपने क्षेत्र में मगरमच्छ, मछली, केकड़े, कछुआ जैसे कई समुद्री जीवों को जीवन देते हैं। थके हारे समुद्री जीव के ये आरामगाह क्षेत्र होते हैं जिनकी नमी व गर्मी से सामुद्रिक संतुलन में समुद्र का जीवन विकसित होता रहता है। ये जहाँ समुद्र के तटों की तूफानों से रक्षा करते हैं वहीं समुद्र से कैल्शियम की मात्रा को सोखकर समुद्र को ज्यादा खरा होने से बचते हैं और अपने इस कैल्शियम के माध्यम से जीव जंतुओं का भरण पोषण करते हैं। ये ब्रीडिंग के लिए बड़े मुफीद होते हैं क्योंकि समुद्री जीवों के ब्रीथिंग यहाँ बहुत रचनात्मक होती है। लेकिन इनमें औपनिवेशिकता की एक सहज बुद्धि होती है जो धीरे धीरे समुद्र के कुछ न कुछ भूगोल पर काबिज हो जाते हैं। अपने ताकतवर 'स्टिल्ट रुट'' के दम पर ये भीतर भीतर एक विशाल क्षेत्र में फैल जाते हैं जिसका मतलब यह कि इनके तने पहले जमीं की तरफ बढ़ते हैं फिर वे जड़ें जमाते हुए अपने तने विकसित कर लेते हैं। ध्यान दीजिए, बिल्कुल अँग्रेजों की तरह ये अपने उपनिवेश का विकास लोकल सपोर्ट के दायरे में करते हैं। यदि अँग्रेजों में उपनिवेश की चेतना इनसे ही आई हो तो इस पर कोई आश्चर्य नहीं! मनुष्यों के लिए ये बहुत खतरनाक होते हैं क्योंकि एक बार जो इसमें फँसा तो निकलना मुश्किल होता है। यह अच्छा ही है अन्यथा यहाँ भी भाई लोग अपनी व्यवस्था जमाने लगेंगे और आदिवासियों की तरह इन्हें भी सुदूर किसी कोने में खदेड़ देंगे फिर असभ्य व बर्बर घोषित कर नष्ट कर डालेंगे। इसलिए दूर से इन्हें देखने की हिदायत के साथ नाववाला तेजी से हमें समुद्र में ले जा रहा था और इस तरह के मैंग्रोव केवल इसी इलाके में मिलते हैँ।

तो इन्हीं मैंग्रोव से गुजरते हुए और हमें इसकी विशेषताओं को बताते हमारा टूरिस्ट गाइड राज मोहन हमें एक छोटी जेटी से उतारकर एक गाँव की तरफ ले चला। यह घने जंगल में जाती एक पगडंडी थी जिसमें बीच बीच में कुछ खेत दिख रहे थे। यह लाइम स्टोन गुफा की यात्रा थी और हम थोड़ी देर में एक गाँव में पहुँचे।

अरे यह तो गाँव है। यहाँ कैसे रहते हैं लोग। तो उसने बताया कि इस गाँव का नाम "नया डेरा" है जहाँ झारखंड से लाकर लोगों को बसाया गया है जिसमे लगभग दस परिवार रहते हैं। मैंने सहज ही पूछ दिया कि आखिर झारखंड से ही क्यों तो उसने बताया कि यह इसलिए कि वहाँ गरीबी है और यहाँ जंगल विभाग ने रास्ते के निर्माण के लिए इन्हें लाकर थोड़े समय के लिए बसाया था जो बाद में जाने से मना कर दिए। क्या बिजली है तो उसने बताया कि न तो है न ही होगी क्योंकि जंगल विभाग इसकी इजाजत नहीं देगा और ये सोलर लैंप से काम चलाते है। मैंने यहाँ रहने वालों की शिक्षा के बारे में पूछा तो उसने एक पड़ाव की तरफ इशारा करते कहा कि यहाँ आप निंबू रस पिएँ और इस रानी से बात करें।

रानी से बात करने के पहले यहाँ जंगल विभाग के मुहम्मद असरफ मिल गए जो बाराटाँग से रोज ही इस क्षेत्र में आते हैं। बहुत सारी जानकारियों के साथ। मैंने उनसे बाराटाँग के नाम के बारे में पूछ दिया तो उन्होंने इसके नामकरण के बारे में दो बातों का जिक्र किया। पहली बात तो यह कि कभी बारह टन की चैन लेकर जाते जहाज में वह चैन इसी जगह वह टूटी थी जिससे इसका नाम पड़ा। दूसरी घटना यह कि कभी बारहटाँग का जानवर इस क्षेत्र में देखा गया था जिसे पकड़ने के लिए कई सुरक्षा कर्मियों को लगाया गया था लेकिन वह काबू में आने के बजाय अचानक अदृश्य हो गया। इस पर मैंने कहा तो 'जरखातांग' का क्या मतलब। क्योंकि टाँग का तो कोई अर्थ होना चाहिए। सिक्किम में टोंग को स्थान कहते हैं तो कहीं जरखटंग जारवा का स्थान तो नहीं है। लेकिन अगर टाँग के स्थान से इसका कोई रिश्ता है तो बाराटाँग में बारह टाँग के निवास स्थान से हो सकता है और इसमें आश्चर्य भी नहीं क्योंकि समुद्र के किनारों पर इस तरह की उपस्थिति संभव भी है। मैंने इन सभी संभावनाओं में इसके बारे में किंचित आश्वस्ति देते जब नया डेरा के इस क्षेत्र के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने भी रानी की तरफ इशारा किया।

रानी एक कम उम्र की हँसमुख लड़की है जो यहाँ पर आने वाले पर्यटकों को निंबू का रस पिलाती है। नया डेरा के इस पड़ाव पर दो दुकानें और हैं जहाँ महिलाएँ ही काम करती हैं। पुरुष दिन में खेती का काम करते हैं और ये पर्यटकों की थकान को मिटाने के लिए शरबत पिलाती हैं। चूँकि सीजन में भीड़ ज्यादे होती है इसलिए ये प्रतिदिन 2 से 3 हजार कमा लेती है। मैंने रानी से इसके बारे में पूछा तो वह संतुष्ट दिखी। पढ़ाई के लिए वह बाराटाँग नाव से कभी कभी जाती है। वह 12वीं में पढ़ रही है जिसके पिता झारखंड के पथरगामा से यहाँ लाए गए थे। पथरगामा का नाम आते ही मुझे अपने शहर के वरिष्ठ कवि ज्ञानेंद्रपति की याद हो आई। लेकिन यह जानता था कि यह उनका नाम नहीं सुनी होगी। और सुनना भी नहीं चाहिए जब उसकी पैदाइश भी इन्हीं मैंग्रोव्स के जंगलों के बीच बसे नए डेरे में ही हुई है। खैर यहाँ भी घर की बनावट हैवलॉक के कोटेज जैसी ही। गोल पत्ते से बनी हुई जिसे 'सिलाई पत्ती' भी कहते हैं। गोल पत्ते के घने जंगल भी यहाँ मुझे दिखे और अच्छी बात यह की सभी प्रमुख पेड़ों के ऊपर उनके नाम जंगल विभाग ने लिख दिए हैं। जैसे जंगली सुपारी, रेड धुप, ब्लैक चुगलम। काला लकड़ी आदि।

इस बातचीत के बीच ही राज मोहन ने गुफा की तरफ बढ़ने का इशारा किया। अपनी साथ लाई टॉर्च की रोशनी में हमारे साथ धीरे धीरे गुफा में प्रवेश किया और इसकी संरचना के बारे में बताता रहा... ऊपर के पानी से टपकने के कारण कई हजार साल में इस लाईम स्टोन गुफा का निर्माण हुआ होगा। भीतर में तरह तरह की आकृतियाँ। भूगर्भविद् ऐसे गुफा के निर्माण को 'स्पिलिओ थेम' कहते हैं जो 'स्टै लैक्टाइट' व 'स्टै लैग्मायिट' के द्वारा संपन्न होती है। पहली जहाँ गुफा की छत पर जमा हो रहे चूने से होती है वहीं जब सिंक होल के माध्यम से यह चूना पानी गुफा के भीतर टपकता है तब दूसरी प्रक्रिया संपन्न होती है। इसमे कैल्शियम कार्बोनेट का बढ़ती मात्रा से कई हजार साल में विविध आकृतियाँ गुफा के भीतर उत्पन्न हो जाती है जिसका रूप हमारे सामने है। मैंने राज मोहन से पूछा कि फिर ईश्वर की इन आकृतियों से क्या मतलब। अरे साहब, आप जो देखें वो दिखेगा। उसने कहा और इस कहने में धंधे की कोई हिचक नहीं थी। ईश्वर यहाँ अवतार थोड़े ही लिया है। यह विशुद्ध रूप से कुदरत का करिश्मा है और यहाँ आने वाले पर्यटकों को जब हम लोग ईश्वरीय आकृतियों के बारे में बताते हैं तो वे अत्यंत प्रसन्न होते है और यात्रा की थकन से किंचित मुक्त भी। आखिरकार अपने को धंधा भी तो करना है! यह कहते हुए उसने अपनी टॉर्च से गुफा में रोशनी फेंकी जिसमें बहुत सी आकृतियाँ दिखाई दीं। लेकिन मैंने जिस चूने के पत्थर पहाड़ की कल्पना की थी वह गायब। यह एक छोटी सी गुफा है जिसको प्रकृति ने बहुत अच्छे से तराशा है। इसकी आकृतियों में शिव पार्वती, कमल, हनुमान से लेकर मछली व मगरमच्छ तक की आकृतियाँ शामिल है जहाँ कई लोग भक्ति भाव भी प्रदर्शित कर जाते हैं। इस समय हमारे साथ चल रहे एक पंजाबी नव विवादित जोड़े ने प्यार के आलिंगन में बँधकर अँधेरे का किंचित लाभ लेते मुझसे फोटो उतारने का आग्रह किया और जैसे ही मैंने वह छवि उतारकर उसे दिखाई लड़का तो थोड़ा शर्मा गया लेकिन लड़की ने पुलक भाव से पति के हथेली को चूमते हुए कहा - 'सच में भगवान होते हैं जी'। मैं कुछ नहीं बोला केवल पास में चल रही श्रीमती जी को देखा लेकिन वे तब तक गुफा से बाहर जाकर बच्चों के साथ फोटो खिंचवाने में मगन थी। तो ईश्वर की सत्ता का आभास इस गुफा में हुआ। स्नेह, स्निग्ध प्रेम से भरे हुए ईश्वर का,और ईश्वर कहीं कहीं नहीं था। थी तो गुफा और वह भी वह भी चूने के पत्थर की गुफा। अब समझ में आया कि जिसे हम चूना (निथरना) समझते आए थे वही चूने के निर्माण का आधार है। आदमी जब भीतर तक खौलता है तो वह कुछ नहीं बोलता। बस ईश्वर हो जाता है। ईश्वरत्व यूँ दीर्घकाल तक हमारे भाल पर टपकती आस्था का संघनित रूप होता है और इसका उदहारण इससे बड़ा और क्या होगा कि राज मोहन जैसा कम पढ़ा लिखा आदमी भी यह संदेश दे गया कि - 'साहब जैसी आकृति खोजोगे वैसी ही मिलेगी'। सब मन माने की बात है साहब!

तो लाइमस्टोन के भीतर अन्यों की तरह हम भी ईश्वर के दर्शन किए। गुफा में अँधेरा था और हम अपने हथेलियों के प्रकाश से प्रकाशित हो रहे थे।

इसी प्रकाशित मन से हम गुफा के बाहर निकले तो अचानक बरसात शुरू हो गई। जंगली महुआ ने थोड़ी देर तक हमें सँभाला लेकिन इस आकस्मिक सामुद्रिक बरसात में देर सबेर भीगना तय था और हम पूरी तरह भीग चुके थे। हमारी देह कपड़ों के भीतर से झाँकने लगी थी लेकिन कपड़े थे कि देह को दंड की तरह धारण किए थे। सूखने की अनंत अभिलाषाओं के साथ।

इन्हीं अभिलाषाओं के साथ हम वापस की नाव पर सवार थे और समुद्र की तेज नमकीन हवाओं में खुद को खुद के सामने साक्षी मानकर सुखा रहे थे इस ललक के साथ कि काश...

इस लौटती यात्रा में एक "मड वोल्केनो" की कथा भी शामिल है जो 2003 की सुनामी से इसी बाराटाँग के बगल में फूटा था जिससे एक समतल जमीन लगभग 50 फुट जमीन से ऊपर उठ गई थी और जहाँ के ऊपरी शिखर से कीचड़ अभी भी निकलता है मानो धरती को जुकाम हो गया हो। यह जगह अभी बहुत विकसित नहीं है शायद इस आशंका में इसे छोड़ दिया गया है कि यहाँ कभी भी लावा फूट सकता है। धरती की निचली सतह गरम है और हमें अपने बारे में बहुत भरम है। पर्यटन हमारे इस भ्रम को बचाने में मदद करता है। भरम यूँ हमारी चेतना को गरम रखता है और हम गरम होकर लौटे हैं ...अपनी समस्त उर्वरता में उद्दीप्त और चंचल।
होते जो शहर तो !
    हम भी समुद्र होते
    कुछ न होते तो लहर ही होते
    सब होते शहर न होते
    होते जो शहर तो
    जहर न होते !

कभी अंडमान नरक था। नरक का प्रवेश द्वार। हमारे पुरखे इसी रास्ते नरक में प्रवेश किए। लेकिन आज अंडमान स्वर्ग है। स्वर्ग में देवता रहते हैं। हम मनुष्य हैं। निरा मनुष्य। हम इस स्वर्ग में बहुत दिन तक नहीं रह सकते। यहाँ इधर के समय में बसने वाले जल्दी ही गगनचुंबी देवता बन जाते हैं। यदि वे साहित्य व कला की दुनिया के हुए तो यह प्रक्रिया जल्दी संपन्न होती है। वे अपने कस्बाई स्वर्ग में महानता का विशेषण ढोते ढोते संज्ञाविहीन हो जाते हैं। इन देवताओं का इतिहासबोध संकीर्ण और भूगोल सीमित होता है। कह सकते हैं महानता भी एक ग्रंथि है जो सीमित भूगोल से आती है। लेकिन यह भी क्या लेकर मैं बैठ गया। लगता है कुछ पर्सनल घटा है। छोड़िए भी।

फिलहाल यह कि अब हम अब अपनी यात्रा के आखिरी पड़ाव में है। ड्राइवर हमें पोर्ट ब्लेयर के 'कार्बिन कोव' बीच पर ले जाता है। यह एक छोटा साफ सुथरा तट है जिसके किनारों पर नारियल के हरे भरे पेड़ हैं। ये अपनी हरीतिमा से हमें भीतर तक नमी दे जाते हैं। इतनी ही ऊँचाई पर एक मचान भी है जो पूरी तरह सुरक्षित व मजबूत बनाया गया है। इस पर चढ़ कर पर्यटकों से फोटो सोटो खिंचवाने के लिए कहा जाता है। अन्य लोगों की तरह हम भी इस पर चढ़े लेकिन फोटो से ज्यादे हमें इसकी ताड़नुमा ऊँचाई का अहसास हुआ जहाँ से समुद्र बहुत दूर तक दिख रहा था। दीखता तो वैसे भी है लेकिन यहाँ से देखने पर इसकी अनंतता का अहसास हो रहा था, और भी कि समुद्र को किसी ऊँचाई से नहीं मापा जा सकता। उसमें गहराई होती है जिसके लिए आपको इसमें गहरे उतरना होगा। जाहिर बात है इसके लिए अपने भीतर की गहराई की डोर का होना आवश्यक है। इसी गहराई के अहसास के साथ हम इसकी लहरदार सीढ़ियों से नीचे उतरे तो एक डाभ वाला हमें देखकर पास आता है और हम चारों को नारियल देकर एक पाइप पकड़ा देता है। हम इसे सुड़क ही रहे थे कि एक बोट वाला समुद्र की सैर का प्रस्ताव लेकर आया। जाहिर बात है एक तो हम बहुत थक चुके थे और दूसरे पिछले आठ दिन से समुद्र के आस पास, ऊपर नीचे इतना हो लिए थे कि अब बाहरी समुद्र की इच्छा ही नहीं थी। अपने भीतर का समुद्र इतना हाहाकार कर रहा था कि अब घर पहुँचने की इच्छा बलवती होने लगी थी...

...लौटती यात्रा में दूरियाँ बहुत लंबी हो जाती हैं और समय जल्द बीतता नहीं। हमें घर की याद बहुत सता रही थी यद्यपि कि बच्चे हमारे साथ थे। तो घर परिवार से कुछ अलग व हटकर होता है! यह बोध हमें होने लगा था। परिवार साथ है लेकिन घर की याद लगातार आ रही थी...

     यूँ घर का होना कुछ अधिक परिवार का होना था
          और यह होना
          अपने पुरखों की जमीन का पथिक होना था।

तो 'घर वापसी' की स्थिति में यादें बहुत उपद्रवी हो जाती हैं। (हालाँकि यह शब्द इधर के वर्षों में अपनी ताजगी खोने लगा है!) लगता है जैसे पेट में मरोड़ उठ रही है और आप पेट को सहलाते हुए इस यात्रा को किसी तरह संपन्न कर रहे हैं! जो दवा चाहिए, वह अपने घर पहुँचकर ही मिलेगी। आतंरिक परिवार के रूप में बच्चे साथ, फिर भी घर की याद। यानी घर, परिवार से एक बड़ी इकाई है जिसमें बहुत सारे लोगों, वस्तुओं व परिस्थितियों की आवाजाही है। बहुत कुछ याद आने लगता है... बी.एच.यू. के वी.टी. का का प्रातः स्मरणीय 'वकोदय'! विभागीय सहयोगियों की चुहलबाजी! कुछ असंवादी आत्मीयों के गरिष्ठ चेहरे! उमड़ते हुए छात्रों का होंकड़ता हुआ इंतजार! पड़ोसी की रोज ही दरवाजे को निहारती आँखें! दूध, दाई व अखबार वाले की पड़ोसी से पूछताछ! घर के बरतनों की आपसी खींचतान और दरवाजों की अपने अपने चौकठों से शामें सहर रगड़ से जो वृहत्तर परिवार बनता है उसकी याद आना स्वाभाविक है। परिवार साथ फिर भी लगता है कोई खोज रहा है। लगता है जैसे कोई चुपचाप, एक सहज मुस्कान लिए, पीछे से कंधे पर हाथ रखेगा और तबियत से पूछेगा - 'कहाँ थे गुरू इतने दिन। दिख नहीं रहे थे सुबह की सैर पर। तबीयत तो ठीक थी न'! कुल मिलाकर एक अमूर्त शायराना इंतजार आपका पूरी यात्रा में पीछा करता है। आपको बेचैन करता हुआ। यह भाव भी कई बार आपको बेचैन करता है कि दूसरे आपको देख रहे हैं, नफरत से ही नहीं उम्मीद से भी। जाहिर सी बात है यह अकारण के शहराती सेल्फी सपोर्ट से आपको मुक्त भी करता है और एक लोक सामाजिक युक्ति के प्रति सचेत बनाए रहता है।

...इस कारण हम बहुत जल्दी में थे जैसे कि यहाँ पर हैं और हमने पूरी विनम्रता से नाविक को मना कर दिया। तभी उसने इंगित करते हुए कहा - मैं समझ रहा हूँ कि आप बहुत समुद्र देख लिए हैं लेकिन यहाँ का अलग है। वो जो सामने दिख रहा है न, वह 'स्नेक आइलैंड' है जहाँ साँपों का पहरा रहता है। यह सुनते ही हमारा ध्यान उधर गया और लगा कि जैसे संपूर्ण धरती का गुरुत्व केंद्र मिल गया। अभी तक तो अंडमान की इस यात्रा में कछुए मिले थे जिनसे कच्छपावतार की तरह हमें सृष्टि को बचने का संकेत मिल रहा था किंतु हर जगह कछुओं पर मँडराते संकट की जानकारी पाकर इनसे अब उम्मीद नहीं रह गई थी। फिर वह चाहे 'हाक्सबिल कछुआ' ही क्यों न हो! यही हाल मछली का भी था यद्यपि यहाँ कोकर, मिर्गल, कुकड़ी, माया, से लेकर सुरमई तक के दर्शन हुए और कई बार तो नई बस्ती के उमाशंकर होटल के ठीक सामने बाकायदा एक मछली की आँख में उँगली डालकर मुझे इसके ताजा होने का प्रमाण दिया गया। इन सबसे यह असंतोष भी गहरा हुआ कि मत्स्यवतार में भी अब यह सृष्टि नहीं बच सकती। फिर चाहे वह कमोर्ता आइलैंड से पकड़ी गई दुनिया की सबसे बड़ी मछली 'ब्लू व्हेल' ही क्यों न हो जो एक साथ कई हाथियों के वजन को उठा सकती है !

तो ये है 'नाग लोक' जिसने समूची धरती को अपने फन पर उठाए रखा है। हमने मन ही मन शेषनाग के इस रूप को प्रणाम किया और दुआ माँगी कि - 'हे प्रभो, अब मत हिलना। मत फुफकारना। मत लपलपाना। तुम विषधर हो। हलधर हो। मरुधर हो। पक्षधर हो। चंद्रधर हो, रविधर हो... और भी न जाने कितने 'धर' हो। अपने विष का वमन मत करना। देखो यह धरती वैसे ही सूख रही है। तुम हम निरीह प्राणियों का खयाल करना और धरती के संतुलन को यूँ ही बनाए रखना। आज के जनतांत्रिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, व्यवहारिक, सरकारी, गैरसरकारी, लौकिक, आध्यात्मिक, पुरस्कृत, अपुरस्कृत, स्वीकृत, अस्वीकृत जाने कितने प्रकार के नाना भाव संपन्न संकटों से हमें मुक्त रखना।

आप तो साक्षात् नीलकंठ हैं महराज। जिसकी गरदन में पड़ जाएँ, उसे अमर ही कर देते हैं। आप ही विचारक हैं। आप ही प्रचारक हैं। हम अपनी आदिम असभ्यता में आनंदवन रूपी काशी के एक सभ्य नागरिक के रूप में आपको पुनः पुनः प्रणाम करते हैं और अनुरोध करते हैं कि तकनीक के इस उन्नत अवस्था में भी सेल्फी के चक्कर में मत पड़ना अन्यथा सारा संतुलन विगड़ जाएगा। हे प्रभो! हम संतानों की रक्षा करना। तनिक नाक मत खुजलाना! हम भारत के नागरिक जन समस्त समुद्र व धरती को आलोकित करने वाले यहाँ के देवदारु रूपी पड़क पेड़ की गगनचुंबी शिराओं से आपूरित आप विशाल पुरुष को नमन करते हैं...

दुनिया भर के संतुलन को बचाने वाले ऐ जल पुरुष!
     अपने संततियों की हर लुटेरों से रक्षा करना
     और उन सभी विकासमान प्राणियों का मान रखना
     जो अपनी आदिम असभ्यता में
     तुम्हारे नमक की गरमी से
     सभ्य होते गए हैं !

( आभार : लीलाधर मंडलोई - ' काला पानी ', वीर सावरकर - ' काला पानी ', सालिग्राम गोसैन : 'स्टोर्मी सावरकर', शकुंतला शिवराम -' अंडमान के इतिहास का सफर ' , प्रमोद कुमार - ' अंडमान की डंडी बस्ती ', शम्सुल इस्लाम : 'सावरकर - मिथक और सच ', एम.एम. की : ' डेथ इन अंडमान ', रोनाल्ड कोहेन : 'अंडमान आईलैंड ', शतींद्रनाथ सान्याल - ' बंदी जीवन ' )


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हिंदी समय में श्रीप्रकाश शुक्ल की रचनाएँ